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श्री महालक्ष्मी व्रत कथा

महालक्ष्मी पूजन विधि

यह व्रत भादों सुदी अष्टमी से प्रारंभ होता है और १६ दिन तक यानि बदी में अष्टमी तक किया जाता है | प्रथम अष्टमी के दिन प्रातः पूजन का स्थान लिपवा पुतवा कर महालक्ष्मीजी की प्रतिमा को शुद्ध जल से नहला कर चौकी पर समस्त सामग्री सहित रखें और स्वयं स्नान कर पूजन करें, भोग लगावें तथा ध्यान पूर्वक कथा पढ़ें | दुसरे दिन से कथा लेखनी के अनुसार पूजन करें | तत्पश्चात ब्राह्मिनों को भोजन कराके अपना व्रत खोलें |

पूजन सामग्री

लक्ष्मी व गणेशजी को प्रतिमा, सिंदूर, केले के स्तम्भ, पञ्च पल्लव, अगरबत्ती, धुप, दीप, नैवैध्य, रोली, चावल, फल, फूल माला, कपूर, चन्दन, पान, कलावा, सुपारी, घृत, कमल का फूल, सूप, दूब, वस्त्र, आभूषण, सोलह गांठों का सूत, कलश, लाल वस्त्र, गुड़, बतासे, पंचामृत आदि |

श्री महालक्ष्मी व्रत कथा प्रारंभ

एक समय धर्मराज युधिष्टिर भगवन श्री कृष्ण से बोले-"हे पुरुषोत्तम ! खोये हुए मान सम्मान की पुनः प्राप्ति कराने वाला और पुत्र आयु सरवैश्वर्य तथा मनवांछित फल को देने वाला कोई वृतांत मुझसे कहिये | " श्री कृष्णजी ने युधिष्टिर से कहा-" हे राजन ! सतयुग के प्रारंभ में जब दैत्यराज वृत्तासुर ने देवताओं के स्वर्ग लोक में प्रवेश किया था तब यही प्रश्न इंद्र ने नारद मुनि से किया था | इंद्र के पूछने पर नारद ने तब इसप्रकार का वर्णन किया |

पूर्वकाल में पुरन्दरपुर नाम का एक अत्यंत रमणीय नगर था | वह नगर अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों से युक्त होने के कारण संसार भर में प्रसिद्ध था | उसमे मंगलसेन नाम का राजा राज करता था | उसकी चिल्लदेवी और चोलदेवी नामक रूपवती रानियाँ थी | एक समय राजा मंगलसेन अपनी रानी चोलदेवी के साथ महल के शिखर पर बैठे थे | वहां से उनकी दृष्टि समुद्र के जल से घिरे स्थान पर पड़ी | उस जगह को देखकर राजा अति प्रसन्न हुआ और अपनी रानी से बोला-"हे चंचलाक्षी ! मै उस स्थान पर तुम्हारे लिए एक परम मनोहर उद्ध्यान बनवाऊंगा | " राजा के ऐसे वाक्य को सुनकर रानी ने कहा - "हे कान्त ! आपकी जैसी इच्छा हो आप वैसा कीजिये | " राजा ने अपने विचार के अनुसार उसी स्थान पर एक सुंदर बगीचा बनवा दिया | वह बगीचा थोड़े दिनों में अनेक वृक्ष लता फूलों और पक्षीगन से संपन्न हो गया |

एक समय उस उद्ध्यान में मेघ तुल्य काला और वर्ण चंचल नेत्रों से युक्त शुकर घुस आया | उसने आकर वृक्षों को तोड़ डाला और उद्ध्यान को चौपट कर डाला | यही नहीं उस शुकर ने बगीचे के कई रखवालों को मार डाला | तब उद्ध्यान के रक्षक उससे भयभीत होकर राजा के पास गए और सब हाल कह सुनाया | अपने परम रम्य उद्ध्यान के उजड़ने की बात सुनकर राजा के नेत्र क्रोध से लाल हो गए | राजा ने अपनी सेना को आज्ञा दी की शीघ्र जाकर उस शुकर को मार डालो | यही नहीं राजा स्वयं मतवाले हाथी पर सवार हो उद्ध्यान की ओर चल पड़ा | तब राजा बोला की यदि किसी की बगल से यह शुकर निकल जायेगा तो मै उस सिपाही का सर शत्रु की भांति काट डालूँगा | राजा के ऐसे वचन सुनकर वह शुकर जिस भाग में राजा खड़ा था उसी मार्ग से मनुष्यों को विदीर्ण करता हुआ निकल गया | राजा अपने हाथी को मारता ही रह गया | राजा लज्जित होकर उस शुकर का पीछा करते हुए सिंह, बाघों से युक्त घोर वन में जा निकला | शुकर से मुठभेड़ हुई और राजा ने अपने बाण से उसे भेद दिया | बाण लगते ही शुकर अपने अधम शरीर को छोड़कर दिव्य गन्धर्व रूप में आ गया और विमान पर चढ़कर स्वर्ग की ओर जाने लगा | गन्धर्व ने राजा से कहा, हे महिपाल ! आपने मुझे शुकर योनी से छुड़ाकर बड़ी कृपा की |

"मै चित्ररथ नामक गंधर्व हूँ | एक समय जबकि ब्रह्माजी देवताओं के बीच में बैठे हुए मेरा गायन सुन रहे थे, तब मुझसे ताल स्वर की भूल हो जाने से उन्होंने रुष्ट होकर मुझे श्राप दिया था की तू पृथ्वी पर शुकर होगा | जिस समय राजा मंगलसेन तुझे अपने हाथों से मारेंगे तब तू शुकर योनी से मुक्त होगा | सो यह श्राप आज पूरा हुआ| हे राजन ! मै आपके कृत्य से प्रसन्न हुआ | आप भविष्य में महालक्ष्मी व्रत करके सर्वभोम राजा हो जायेंगे, ऐसा मेरा आशीर्वाद है |"

वह चित्ररथ गन्धर्व राजा मंगलसेन को ऐसा आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गया | राजा भी वहां से अपने नगर के लिए चलने को उद्ध्यत हुआ, त्यों ही उसे एक ब्राह्मिण दिखाई दिया | राजा ने ब्राह्मिण से प्रश्न किया की, हे देव ! आप कौन हैं ? इस पर ब्राह्मिण ने उत्तर दिया, हे राजन ! मै आपके ही राज्य का एक नागरिक हूँ | आप इस समय दुखी दिखाई देते हैं इसलिए कहिये मै आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ | राजा ने तब ब्राह्मिण से कहा की वह उसके घोड़े को निकट के जलाशय से पानी पिला लावे, ब्राह्मिण ने ऐसा ही किया | वह घोड़े की पीठ पर सवार होकर जलाशय की ओर जाता है | बटुक जलाशय के निकट पहुँच कर देखता है की वहां दिव्य वस्त्र और अलंकार पहने हुए बहुत सी स्त्रियाँ कथा कह रही हैं | तदन्तर वह बटुक भी उन स्त्रियों के पास जाकर अपना परिचय देकर नाना प्रकार के प्रश्न करने लगा | हे स्त्रियों ! आप यहाँ भक्ति भाव से क्या कर रही हैं ? इसके करने से क्या फल मिलता है ? इन देवियों ने तरस खाकर उस ब्राह्मिण से कहा- यहाँ महालक्ष्मीजी की पूजा हो रही है | और जो कथा हम कह रही हैं यह उसी व्रत की कथा है | अतः आप एकाग्रचित्त होकर इस कथा को सुने | इस व्रत को करने से हर प्रकार की संपत्ति प्राप्त हो सकती है तथा अपना खोया यश भी प्राप्त हो सकता है , इसमें कोई संदेह न करें | इसप्रकार बटुक को उन स्त्रियों ने व्रत का वृतांत कह सुनाया | बटुक ने घोड़े को जल पिलाया और राजा के लिए कमल के पत्ते व जल लेकर वहां से लौट आया | ब्राह्मिण ने लौटकर सारा किस्सा राजा को सुनाया और यही व्रत की कथा राजा से कह सुनाई | महालक्ष्मी का व्रत व पूजन करके राजा अपने ऐश्वर्य का भागी बनकर राजा उस बटुक को साथ लेकर अपनी राजधानी लौट आया |

सबसे पहले राजा अपने मित्र बटुक के साथ अपनी बड़ी रानी चोलदेवी के महल में जाता है | रानी राजा के हाथ में व्रत का बंधा हुआ डोरा देखकर रुष्ट हो जाती है | वन में यह डोरा किसी अन्य स्त्री ने राजा के हाथ में बंधा है ऐसा विचार कर वह डोरा राजा के हाथ से तोड़कर फेंक देती है | उसी समय राजा की छोटी रानी चिल्लदेवी वहां आ पहुँचती है और उस डोरे को उठा लेती है और पास खड़े बटुक से उस डोरे का रहस्य जान लेती है | दुसरे वर्ष जब महालक्ष्मी व्रत का दिन आता है, तब राजा अपने हाथ के डोरे को देखते हैं और चिल्लदेवी के महल में व्रत पूजा आदि का सन्देश पाकर पहुँच जाते हैं | वे इसप्रकार चोलदेवी से नाराज हो जाते हैं और चिल्लदेवी से प्रसन्न हो जाते हैं | पूजन के दिन ही लक्ष्मीजी चोलदेवी रानी के महल में एक वृध्द का रूप धारण करके पहुँचती है, वहां चोलदेवी लक्ष्मीजी का अनादर करती है, तब अप्रसन्न होकर लक्ष्मीजी चोलदेवी को श्राप देती है कि जा तेरा मुख शुकरी के जैसा हो जायेगा। ज़ब तू अंगिरा ऋषि के यहाँ जाएगी तब वहां कृत्य से अपना स्वरुप प्राप्त करेगी।
                     इसके बाद लक्ष्मीजी रानी चिल्ल्देवी के महल में गई। वहां रानी ने उनका बड़ा आदर किया तो प्रसन्न होकर लक्ष्मीजी ने कहा - "हे रानी, मै तेरे पूजन तथा आदर सत्कार से प्रसन्न हुई हुँ । तू वर मांग ।  " रानी ने कहा - "हे देवी, जो भी तुम्हारे इस व्रत को करे, उसके घर में सदा निवास करो तथा जो भी इस व्रत कथा को पढ़े या श्रवण करे उसकी मनोकामनाएं पूरी किया करो । मै  आपसे यही वरदान चाहती हूँ। " तब लक्ष्मीजी वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गई.।
                   उस दिन रानी चोलदेवी शूकरी जैसे मुख हो जाने के कारण अपने द्वारपालों से अपमानित होती है। जब रानी अपना मुख दर्पण में देखती है तो पछताती है। फिर वह लक्ष्मीजी के बताये अनुसार अंगिरा ऋषि के कहेनुसार महालक्ष्मी व्रत करती है और अपना खोया रूप प्राप्त करती है। ऋषि के आग्रह से राजा मंगलसेन अपनी बड़ी रानी को ग्रहण करता है।
                 इसप्रकार राजा अपनी दोनों पत्नियों के साथ बहुत वर्षों तक राज्य करते रहे। वह अपने समय के चक्रवर्ती राजा माने जाने लगे और उन्होंने बटुक ब्राह्मण को भी विशाल राज्य का मंत्री बना दिया। राजा अपनी दोनों पत्नियों के इस व्रत को निरंतर करने के कारण अंत में स्वर्ग लोक गए और आकाश में उन्हें श्रवण नक्षत्र का रूप प्राप्त हुआ । जो भी इस व्रत को करेगा वह इस लोक में समस्त सुख भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त होगा। अतः तुम भी वत्रासुर दैत्य का नाश करने हेतु इस व्रत को करो, तुम्हारी भी मनोकामना पूरी होगी। इति।
 जय माँ महालक्ष्मीजी ॥ 

श्री लक्ष्मी महात्म्य वृत्त कथा





गुरुवार को माता लक्ष्मी की कथा सुनने से मन की इच्छा पूर्ण होती है, धन की प्राप्ति होती है, संतान दीर्घायु होती है तथा दुःख दारिद्रय नष्ट होता है |

श्री लक्ष्मी विविध रूपिणी हैं | लक्ष्मीजी के अनेक नाम हैं; कैलाश में रहने वाली पार्वती, क्षिराब्धि की सिन्धुकन्या, स्वर्ग की महालक्ष्मी, भूलोक में रहने वाली लक्ष्मी, ब्रम्हलोक की सावित्री, गोलोक की राधिका, वृन्दावन में रहने वाली राजेश्वरी, चन्दन वन की चंद्रा, चम्पक वन की विरजा, पद्मवन की पद्मावती, मालती वन की मालती, कुंदनवन की कुंदर्दाती, केतकी वन की सुशीला, कन्दब वन की कन्दब माला, राजगृह में रहने वाली राजलक्ष्मी और घर घर की गृहलक्ष्मी ऐसे विविध रूप से और विविध नाम से लक्ष्मी देवी प्रसिद्ध हैं |

ऐसी महालक्ष्मी की यह कहानी है | सौराष्ट्र देश की,द्वापर युग की | वहां भद्रश्रवा नाम का राजा राज्य करता था | वह पराक्रमी था | चार वेद, छः शास्त्र, अठारह पुराण आदि का इन्हें ज्ञान था | उनकी रानी का नाम था सूरतचन्द्रिका | वह लावण्यमयी, सुलाक्षनी और पतिव्रता थी | उस दम्पति की आठ संताने थी | सात पुत्र और एक कन्या | कन्या का नाम था शामबाला | एक दिन श्री लक्ष्मी जी के मन में आया की राजा के राजगृह में जाकर निवास करें, जिसके कारण राजा अपनी प्रजा को अधिक सुख देगा | गरीब के घर अगर मै रहूँ तो वह सारी धन संपत्ति खा लेगा | इसलिए लक्ष्मीजी ने वृद्ध ब्राह्मिण स्त्री का रूप लिया | हाथ में आधार के लिए एक लकड़ी ले ली और उसका सहारा लेते लेते वे सूरत चन्द्रिका रानी के महल के दरवाजे में खड़ी हो गयी | उन्हें देखकर रानी की एक सेविका सामने आ गयी | उसने उस वृद्धा स्त्री की पूछताछ की | वृद्धा ने अपना नाम, पति का नाम, रहने का स्थान आदि समुचित जानकारी दे दी | वृद्धा स्त्री के रूप की लक्ष्मी माता कहने लगी- "मेरा नाम है कमला, पति का नाम भुवनेश, हम लोग द्वारका में रहते हैं | तुम्हारी रानी पूर्वजन्म में एक वैश्य की पत्नी थी | वह वैश्य बहुत दरिद्र था, हर दिन दोनों में लड़ाई हो जाती | उसका पति उसे बहुत मारपीट करता, इस हालत से वह बहुत परेशान हो गयी और घर छोड़कर चली गयी | वन में बिना कुछ खाए-पिए घुमती रही | उसकी यह हालत देखकर मुझे उसकी दया आई | धन संपत्ति देने वाली श्री लक्ष्मी जी की कहानी मैंने उसे सुनाई | मेरे कथानुसार उसने लक्ष्मी वृत्त का पालन किया | लक्ष्मी देवी उससे प्रसन्न हो गयी, उसका दारिद्र्य नष्ट हो गया, संतति संपत्ति से उसका घर भर गया, आनंद हो गया | जितने साल उन्होंने लक्ष्मी वृत्त का पालन किया उतने हजार वर्ष उनको आनंद प्राप्त हुआ| उन्हें राजकुल में जनम प्राप्त हुआ | लेकिन रानी को अब अपने वृत्त का विस्मरण हो गया है | उन्हें स्मरण दिलाने मै यहाँ आई हूँ |" रानी की सेविका ने उनसे लक्ष्मी व्रत की जानकारी पूछी | पूजा विधि की भी जानकारी ली | वृद्धा रूपधारी श्रीलक्ष्मी ने व्रत की जानकारी और महात्म्य का कथन किया | इसके बाद सेविका वृद्धा को धन्यवाद दे रानी को उनका सन्देश देने चली गयी |

राज वैभव में रहने वाली रानी को अपने ऐश्वर्य का बहुत घमंड था, वह उन्मत्त हो गयी थी | वृद्धा का सन्देश सुनकर वह यकायक गुस्से में आ गयी और वृद्ध ब्राह्मिण स्त्री को अपमानित किया, उसके साथ मारपीट भी की | लेकिन वह साक्षात् लक्ष्मीजी का रूप है यह बात रानी को मालूम न थी | रानी का बुरा बर्ताव देखकर लक्ष्मीजी ने वहां रहना पसंद नहीं किया | अपने खुद के निवास में ही रहना पसंद किया | वह वहां से निकली, कुछ ही दूरी पर उन्हें शामबाला मिली | उसे सारी जानकारी मिली | उसने उस वृद्धा स्त्री से क्षमा याचना की तब लक्ष्मीजी को उस पर दया आ गयी | उन्होंने शामबाला को लक्ष्मी व्रत की जानकारी दी | वह दिन मार्गशीर्ष मास का प्रथम गुरुवार था | शामबाला ने भाव भक्ति से लक्ष्मी व्रत का पालन किया | इसकी फल प्राप्ति यह हुई की सिद्धेश्वर नामक राजा के मालाघर नामक पुत्र से उसका विवाह संपन्न हुआ | उसे बड़ा वैभव प्राप्त हुआ | वह अपने पति के साथ राज वैभव में रहने लगी |

इधर लक्ष्मी कोपायमान होने के कारण राजा भाद्र्श्रवा और रानी सूरत चन्द्रिका इनके राज का अस्त हुआ | वैभव ऐश्वर्य का लोप हुआ और उनकी दशा बड़ी शोचनीय हो गयी | एक दिन सूरतचन्द्रिका अपने पति से बोली- "अपनी बेटी का पति राजा है, उसके पास जाओ, अपनी दशा बताओ | उसे दया आएगी और वह कुछ संपत्ति जरुर देगा |"

भद्र्श्रवा शाम बाला के पति के राज्य में गया | एक तालाब किनारे विश्राम के लिए बैठ गया | इतने में शाम बाला की कुछ दासियाँ जलकुम्भ लेकर जल भरने के लिए वहां आई | राजा भद्र्श्रावा को उन्होंने देखा | उन दासियों ने उनके बारे में पूछताछ की | उन्होंने सब कुछ बताया | वह अपनी शाम बाला के ही पिता हैं यह जानने पर दासियाँ दौड़कर शामबाला के पास आई, सारी जानकारी उसे बताई | शामबाला अपने पिताजी को बड़े ठाठबाठ के साथ अपने महल में लायी | उनकी आवभगत की, आदर सत्कार किया | वह जब वापस जाने को निकले तब उसने उन्हें हांडी भर धन भेट किया |

भद्र्श्रवा अपने घर पहुँच गया | सूरत चन्द्रिका को हर्ष हुआ उसने भेंट हांडी खोली | हांडी में धन की जगह कोयला भरा हुआ था | लक्ष्मीजी की कृपा से यह चमत्कार हो गया था |

कुछ दिन बीत गए | अब सूरतचन्द्रिका अपनी बेटी के घर गयी | वह दिन था मार्गशीर्ष मास का अंतिम गुरुवार | शामबाला ने लक्ष्मी व्रत किया था | अपनी माताजी से भी यह व्रत करवाया | सूरतचन्द्रिका अपने घर वापस आ गयी | उसने लक्ष्मी व्रत किया था इसलिय उसे पहले सा वैभव, राजैश्वार्य पुनः प्राप्त हुआ | कुछ दिन शामबाला मायके में आ गयी | लेकिन अपने पिताजी को कोयला दिया यह गुस्सा सुरत्चंद्रिका के मन में था इसलिए वहां शामबाला की कोई पूछताछ नहीं हुई | उसका वहा अनादर हुआ लेकिन वह क्रोधित नहीं हुई | वहां से निकली और निकलते समय कुछ नमक लिया | वापस आने पर पति ने पुछा- "शामबाला ! मायके से क्या लायी ?" तब वह बोली-"राज्य का तथ्यांत सार लेकर आई हूँ |" पतिदेव बोले-"इसका क्या मतलब?" उसने जवाब दिया-"कुछ दिन ठहरो, सारी बातें समझ में आ जाएगी |" उस दिन उसने भोजन की सारी चीजे बिना नमक के पकाने का आदेश दिया | पति देव को उसने भोजन परोसा, उन्हें नमक के बिना सारे खाद्य पदार्थ रुचिहीन लगे | बाद में उसने भोजन थाल में कुछ नमक रखा, खाद्य पदार्थ में नमक मिलाया तो भोजन रुचिमय लगने लगा | यही है " राज्य का सार " , पति को यह बात समझ में आ गयी |
संक्षेप में, इसप्रकार से जो कोई श्री लक्ष्मी व्रत श्रृद्धा युक्त भाव से करेगा तो उसे लक्ष्मी की प्राप्ति होगी | सुख शांति का लाभ होगा | मनोकामनाएं पूर्ण होगी | लेकिन धन-धान्य प्राप्त होने पर लक्ष्मीजी का व्रत करना न भूले | हर गुरुवार कथा का पठान- श्रवण करें | ऐसी यह श्री लक्ष्मी व्रत की कहानी गुरुवार को सभी को सफलता प्रदान करने वाली हो | शुभ भवतु |

||ॐ श्री लक्ष्मी देवी नमः ||

श्री लक्ष्मी नमनाष्टक


नमस्कार महामये, जगन्माते परत्परे |
शंख चक्र गदा हस्ते, लक्ष्मी माते नमोस्तुते |१|
आदि नहीं अंत नहीं, आद्यशक्ति सचमुच तू |
विश्वधारे विष्णुकांते, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |२|
सर्वव्यापी सर्वसाक्षी, सुद्धसत्वस्वरूपिणी |
सर्वज्ञे सिन्धु सम्भुते, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |३|
कमले कमल्नेत्रे कोमले कमलासने |
मंगले मुदिते मुग्धे, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |४|
शुभ्रवस्त्रधारिणी गरुढ़ध्वज्भामिनी |
दिव्यलंकार भूषिते, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |५|
सर्व दुःख हरे देवी, भुजंग शयननाग्नने |
भगवती भाग्यदासी, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |६|
सिद्धिबुद्धि भुक्तिमुक्ति, संतति शंखसम्प्दा |
आयु आरोग्य देने वाली लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |७|
नमोनमः महालक्ष्मी धनवैभवदाय के |
दैन्य हमारे दूर करो, प्रार्थी मिलिंद माधव |८ |
पठन श्रवण भावे नित्य करे नम्नाश्टका |
मनोकामना प्राप्त हो, सत्य श्रृद्धायुक्त भाबुका |९|

श्री महालक्ष्मी देवीजी की आरती


जयदेवी जयदेवी श्री महालक्ष्मी माते, प्रसन्न होकर व्रत दे हमे माते |
श्री विष्णुकांते तू विश्वेश्वरी सत्ता, स्थिरचर धन देगी लक्ष्मीव्रत करता |
जननी तुझ सामान नहीं त्रिभुवन में, सुर वर मस्तक वन्दित तव चरणों में |
कृपा प्रसाद से हो लाभांत सुखशांति, चित्त कलेश हारती माते, नहीं रहती आपत्ति |
वैभव ऐश्वर्य का और अपर धन का, दान देगी दयाले निरंतर सौख्यका |
मिलिंद माधव तुम्हारी करते भावे अर्चन, प्रेम भक्ति भाव से शरणागत हम सब |
जयदेवी जयदेवी श्री महालक्ष्मी माते, प्रसन्न होकर व्रत दे हमे माते |

अन्नपुर्णा देवी व्रत कथा



अन्नपुर्णा देवी की प्रार्थना

सिद्ध सदन सुन्दर बदन, गणनायक महाराज
दास आपका हूँ सदा कीजै जन के काज ||
जय शिव शंकर गंगाधर, जय जय उमा भवानी
सिया राम कीजै कृपा हरी राधा कल्याणी ||
जय सरस्वती जय लक्ष्मी, जय जय गुरु दयाल
देव विप्र और साधू जय भारत देश विशाल ||
चरण कमल गुरुजनों के, नमन करूँ मई शीश
मो घर सुख संपत्ति भरो , दे कर शुभ आशीष ||

दोहा
हाजिर है सब जगह पर, प्रेम रूप अवतार
करें न देरी एक पल, हो यदि सत्य विचार ||
प्रेमी के बस में बंधे, मांगे सोई देत
बात न टाले भक्त की , परखे सच्चा हेत ||
श्रृद्धा वाले को ज्ञान मिले , तत्पर इन्द्रीवश वाला हो
पावे जो ज्ञान शीघ्र ही सब सुख शांति स्नेह निराला हो ||
वन में दावानल लगी, चन्दन वृक्ष जरात
वृक्ष कहे हंसा सुनो , क्यों न पंख खोल उड़ जात ||
प्रारब्ध पहले रखा पीछे रचा शरीर
तुलसी माया मोह फंस, प्राणी फिरत अधीर ||
तुलसी मीठे वचन से , सुख उपजत चहुँ ओर
वशीकरण यह मन्त्र है, तज दे वचन कठोर ||
मान मोह आसक्ति तजि, बनो अद्ध्यात्म अकार
द्वंद मूल सुख दुःख रहित पावन अवयव धाम ||
तामे तीन नरक के द्वार हैं, काम क्रोध अरु मद लोभ
उन्हें त्याग किन्हें मिळत, आत्म सुख बिन क्षोभ ||
सब धर्मों को त्याग कर माँ शरण गति धार
सब पाँपों से मै तेरा करूँ शीघ्र उद्धार ||
यह गीता का ज्ञान है, सब शास्त्रों का सार
भक्ति सहित जो नर पढ़ें लहे आत्म उद्धार ||
गीता के सम ज्ञान नहीं, मन्त्र न प्रेम रे आन
शरणागति सम सुख नहीं, देव न कृष्ण देव ||
अमृत पी संतोष का, हरी से ध्यान लगायें
सत्य राख संकल्प मन विजय मिलें जहा जाय ||
मन चाही सब कामना, आप ही पूरण होय
निश्चय रखो भगवान् पर, जल में दे दुःख खोय ||

व्रत कथा

काशी निवासी धनजय की पत्नी का नाम सुलक्षणा था | उसे अन्यान्य सब सांसारिक सुख प्राप्त थे, परन्तु निर्धनता ही एक दुःख का कारण थी | यह दुःख उसको हर समय सताता रहता था | एक दिन सुलक्षणा अपने पति से बोली- स्वामी, आप कुछ उद्यम करो तो काम बने, इसप्रकार कब तक काम चलेगा | सुलक्षणा की बात धनंजय के मन में बैठ गयी और वह उसी दिन विश्वनाथ शंकर को खुश करने को पूजा में बैठ गया | कहने लगा - हे देवादि देव विश्वेश्वर मुझे पूजा-पाठ कुछ आता नहीं, केवल तुम्हारे भरोसे बैठा हूँ, इतनी कृपा कर, दो- तीन दिन तक भूखा- प्यासा बैठा रहा | यह देख कर भगवान् शंकर ने उसके कान में अन्नपूर्ण| अन्नपुर्णा || अन्नपुर्णा ||| इसप्रकार तीन बार कहा | यह कौन, क्या कह गया ? इस सोच में धनंजय पड़ गया और मंदिर से आते हुए ब्रह्मिनों को देखकर पूछने लगा- पंडितजी, यह अन्नपूर्ण कौन है? वे बोले- तू अन्न छोड़ बैठा है सो हर समय अन्न की ही बात सूझती है | जा घर जा, अन्न गृहं कर | धनंजय अपने घर गया और पत्नी से सारा वृतांत कहा | वह बोली - हे नाथ ! चिंता मत करो | स्वयं शंकरजी ने यह मन्त्र दिया है, वह खुद ही इसका खुलासा करेंगे | आप फिर जाकर उनकी आराधना करो | धनंजय फिर जैसा का तैसा पूजा में बैठ गया | रात्रि में शंकरजी ने आज्ञा दी की तू पूर्व दिशा में जा , वहां इसका योग लगेगा | और तू सुखी होगा | महादेव बाबा का कहना मान वह पूर्व दिशा को चल दिया | वह अन्नपुर्णा-अन्नपुर्णा कहता जाता और रस्ते में फल खता जाता, झरनों का पानी पीता जाता | इसतरह कितने ही दिन चलता गया | वहां उसे चाँदी-सी चमकती वन की शोभा देखने में आई | सुन्दर सरोवर देखने में आया और उसके किनारे कितनी ही अप्सराएं झुण्ड बनायें बैठी है | एक कथा कहती थी और सब माता अन्नपुर्णा-अन्नपुर्णा इसप्रकार बार-बार कहती थी कि आज अगहन मास कि उजियाली रात्रि थी | आज से ही इस व्रत का आरम्भ था | जिस शब्द कि खोज को मै घर से निकला था वह शब्द आज मुझे सुनने को मिला है |

धनंजय उनके पास जाकर पूछता है - हे देवियों ! आप ये क्या करती हो? वे बोलीं - हम माता अन्नपूर्णा का व्रत करती हैं | व्रत करने से क्या होता है? यह किसी ने किया भी है इसको कब किया जाये? यह समझा कर मुझसे कहो | वे कहने लगी - इस व्रत को सभी कर सकते है | २१ दिन तक के लिए २१ गांठ का सूत्र लेना | २१ दिन न बने तो १ दिन का उपवास करना | यह भी न बने तो केवल कथा सुनकर माता का प्रसाद लेना | निराहार रहकर कथा करना | कथा सुनने वाला कोई न मिले तो पीपल के पत्ते को दस सुपारी, गुवारपाठा के वृक्ष को सामने रख कर, दीपक को साक्षी रख कर, सूर्य, गाय, तुलसी या महादेव की कथा सुनना | बिना कथा सुनाये मुख में दाना न डालना | यदि भूल में कुछ पड़ जाये तो एक दिवस फिर उपवास करना और व्रत में क्रोध न करे, झूठ न बोले | धनंजय बोला - इस व्रत के करने से क्या होगा ? वे कहने लगी - इसके करने से अंधों को नेत्र मिले, लूलों को पाँव मिले, निर्धन के घर धन आवे, बाँझ को संतान मिले, मूर्ख को विध्या आवे, जो जिस कामना से व्रत करें माता उनको इच्छा पूरी करती है | धनंजय बोला - बहिनों ! मेरे पास भी धन नहीं, विद्द्या नहीं, कुछ भी तो नहीं है | मैं दुखिया और दरिद्र ब्रह्मिण हूँ | मुझे उस व्रत का सुख डौगी | हाँ भाइ तेरा कल्याण हो, हम तुझे देंगीं | ले व्रत का मंगलसूत्र ले | धनंजय ने व्रत किया और पूरा हुआ | तभी सरोवर में से २१ खंड की स्वर्ण सीढ़ी हीरा - मोती जड़ी प्रकट हुई | धनंजय अन्नपूर्णा - अन्नपूर्णा कहता जाता था | इस प्रकार कितनी ही सीढियां उतर आया तो क्या देखता है की करोड़ों सूर्यों के सामान प्रकाशमान अन्नपूर्णाजी का मंदिर है | उसके स्वर्ण सिंहासन पर अन्नपूर्णा विराजमान हैं | सामने भिक्षा हेतु शंकर भगवान खड़े है | देवांगनाएँ चंवर डुलाती है | कितनी ही हथियार बंधे पहरा देती हैं | धनंजय दौड़ कर माता के चरणों पर गिर पड़ा | माता उसके मन का क्लेश जान गई | धनंजय कहने लगा - माता ! आप तो अंतर्यामी हो, आपको अपनी दशा क्या बताऊँ | माता बोली - तुने मेरा व्रत किया है जा तेरा संसार सत्कार करेगा | माता ने धनंजय की जिव्हा पर बीज मंत्र लिख दिया | अब तो उसके रोम रोम में विध्या प्रविष्ठ हो गई | इतने में क्या देखता है की काशी विश्वनाथ के मंदिर ने खड़ा हुआ है | माता का वरदान ले कर धनंजय घर आया और सुलक्षणा से सब बात कही | माताजी की कृपा से अटूट संपत्ति उमड़ने लगी | छोटा घर बहुत बड़ा गिना जाने लगा | जैसे शहद के छत्ते में मक्खियाँ जमा हो जाती है उसी प्रकार अनेक सगे-संबधी आकर उसकी बड़ाई करने लगे | इतना धन, इतना बड़ा सुन्दर घर संतान नहीं तो इस कमी का कौन भोग करेगा | सुलक्षणा के संतान नहीं है, इसलिए तुम दूसरा विवाह करो | अनिच्छा होते हुवे भी धनंजय को दूसरा विवाह करना पड़ा | सटी सुलक्षणा को सौत का दुःख उठाना पड़ा | इस तरह दिन बीतते गए फिर अग्घन मास आया और नए बंधन से बंधे पति से सुलक्षणा ने पति से कहलवाया की व्रत व्रत के प्रभाव से हम सुखी हुए हैं, इस कारण यह व्रत हमें छोड़ना नहीं चाहिए | यह माता जी का प्रताप है, हम इतने सम्पन्न व् सुखी हुए है | सुलक्षणा की बात सुन कर धनंजय उसके यहाँ आया और व्रत में बैठ गया | नै वधु को इस बात की खबर नहीं थी | वह धनंजय के आने की राह देख रही थी | दिन बीतते गए और व्रत पूरा होने में तीन दिवस रहे की नै पत्नी को खबर मिली और उसके मन में इर्ष्या की ज्वाला दहक रही थी | सुलक्षणा के घर पहुची और झगडा करके वह धनंजय को अपने साथ ले आई और नए घर में धनंजय को थोड़ी देर के लिए निद्रा ने आ घेरा |
उसी समय नयी पत्नी ने उसके व्रत का सूत्र तोड़कर अग्नि में फेंक दिया | अब तो माताजी बड़ी क्रोधित हुई | घर में अचानक आग लग गयी, सब कुछ जलकर राख हो गया | सुलक्षणा जान गयी और अपने पति को वापस अपने घर ले आई | नयी पत्नी रूठकर अपने पिता के घर जा बैठी | संसार में दो जीव थे उनमे से अब एक ही रह गया | पति को परमेश्वर मानने वाली सुलक्षणा बोली- हे नाथ ! घबराना नहीं | माताजी की कला अलौकिक है पुत्र कुपुत्र हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती, आप माता में श्रृद्धा रखें और फिर आराधना शुरू करें | वे अवश्य हमारा कल्याण करेंगी | धनंजय फिर माता का व्रत करने लगा | फिर वही सरोवर सीढ़ी प्रकट हुई उसमे अन्नपूर्ण माँ कह कर उतर गया | वहां माता के चरणों में रुदन करने लगा | माता प्रसन्न होकर बोली - यह मेरी स्वर्ण की मूर्ति ले और इसका पूजन करना तू फिर सुखी हो जायेगा | जाओ तुमको मेरा आशीर्वाद है तेरी पत्नी सुलक्षणा ने श्रृद्धा से मेरा व्रत किया है उसको मैंने पुत्र दिया | धनंजय ने आँखें खोली और खुद को काशी विश्वनाथ मंदिर में खड़ा पाया, वहां से फिर उसी प्रकार घर आया | इधर सुलक्षणा के दिन चढ़े और महिना पूरे होते ही पुत्र का जन्म हुआ | ग्राम में आश्चर्य की लहर दौड़ गयी | मान्यता आने लगी | इसीप्रकार उस ग्राम के निःसंतान सेठ के पुत्र होने से उसने माता अन्नपूर्णा का सुंदर मंदिर बनवाया | जिसमे धूमधाम से माताजी पधारी | यज्ञ किया और धनंजय को मंदिर का आचार्य पद दिया और जीविका के लिए मंदिर की दक्षिणा और रहने के लिए बड़ा सुंदर भवन बनवा दिया | धनंजय स्त्री-पुत्र के साथ वहां रहने लगा | माताजी की चढौत्री से भरपूर आमदनी होने लगी | इधर नयी वधु के पिता के घर डाका पड़ा, सब कुछ लूट गया, वे भिक्षा मांग कर पेट भरने लगे | सुलक्षणा ने जब यह सब सुना तो उन्हें बुला भेजा | अलग घर में राख दिया और उनके अन्न-वस्त्र का प्रबंध कर दिया | धनंजय, सुलक्षणा और उसका पुत्र माताजी की कृपा से आनंद करने लगे | माताजी ने जैसे इनके भंडार भरे वैसे सबके भरे |

मन्त्र
अन्नपूर्णा सदा पूर्णा शंकर प्राणवल्लभे
ज्ञान वैराग्य सिद्ध्यारार्थम भिक्षम देहि च पार्वती ||
माता में पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः
बान्धवः शिवाभाक्ताश्च स्वदेशो भुव्त्रयम ||

Mahalakshyashtak


नमस्तेस्तु महामाये श्रीपीठे सुरपूजिते।
शङ्खचक्रगदाहस्ते महालक्षि्म नमोस्तु ते॥1॥

नमस्ते गरुडारूढे कोलासुरभयङ्करि।
सर्वपापहरे देवि महालक्षि्म नमोस्तु ते॥2॥

सर्वज्ञे सर्ववरदे सर्वदुष्टभयङ्करि।
सर्वदु:खहरे देवि महालक्षि्म नमोस्तु ते॥3॥

सिद्धिबुद्धिप्रदे देवि भुक्ति मुक्ति प्रदायिनि।
मन्त्रपूते सदा देवि महालक्षि्म नमोस्तु ते॥4॥

आद्यन्तरहिते देवि आद्यशक्ति महेश्वरि।
योगजे योगसम्भूते महालक्षि्म नमोस्तु ते॥5॥

स्थूलसूक्ष्ममहारौद्रे महाशक्ति महोदरे।
महापापहरे देवि महालक्षि्म नमोस्तु ते॥6॥

पद्मासनस्थिते देवि परब्रह्मस्वरूपिणि।
परमेशि जगन्मातर्महालक्षि्म नमोस्तु ते॥7॥

श्वेताम्बरधरे देवि नानालङ्कारभूषिते।
जगत्सि्थते जगन्मातर्महालक्षि्म नमोस्तु ते॥8॥

महालक्ष्म्यष्टकं स्तोत्रं य: पठेद्भक्ति मान्नर:।
सर्वसिद्धिमवापनेति राज्यं प्रापनेति सर्वदा॥9॥

एककाले पठेन्नित्यं महापापविनाशनम्।
द्विकालं य: पठेन्नित्यं धनधान्यसमन्वित:॥10॥

त्रिकालं य: पठेन्नित्यं महाशत्रुविनाशनम्।
महालक्ष्मीर्भवेन्नित्यं प्रसन्ना वरदा शुभा॥11॥

माँ वैभव लक्ष्मी व्रत

वैभव लक्ष्मी व्रत शुक्रवार को किया जाता है | इस व्रत को प्रारम्भ करने के बाद नियमित रुप से 11 या 21 शुक्रवारों तक करना चाहिए | प्रात: जल्दी उठकर पूरे घर की सफाई करनी चाहिए | जिस घर में साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता है, उस घर-स्थान में देवी लक्ष्मी निवास नहीं करती है| व्रत अपने घर में करें और यदि किसी शुक्रवार घर पर नहीं है, सूतक है या व्रत करने वाली स्त्री रजस्वला है, तो उस शुक्रवार को छोड़कर अगले शुक्रवार को व्रत करें व् कथा पढ़ें | व्रत के दिन हो सके तो पूर्ण उपवास रखें तथा संध्या समय पूजा व् कथा के पश्चात भोजन ग्रहण करें | पूर्ण उपवास न रख सकें तो फलाहार, १ समय भोजन या दोनों समय भोजन ले सकते हैं |
पूजा में सोना, चाँदी या रुपया रखें | धूप, दीप, गंध और श्वेत फूलों से माता की पूजा करनी चाहिए व्रत के उद्यापन पर खीर या कुछ भी मीठा प्रसाद तथा कम से कम ७ या ११,२१,५१ आदि संख्या में स्त्रियों या बालिकाओं को यथायोग्य दान-दक्षिणा दें |

श्री महालक्ष्मी यंत्र

हे लक्ष्मी माँ, सबकी मनोकामना पूरी करना और सबका कल्याण करना |

धनलक्ष्मी माँ
गजलक्ष्मी माँ
अधिलक्ष्मी माँ
विजयालक्ष्मी माँ
ऐश्वर्यलक्ष्मी माँ
वीरलक्ष्मी माँ
धान्यलक्ष्मी माँ
संतानलक्ष्मी माँ

पूजन विधि :

सर्वप्रथम पूजन करने वाले स्त्री या पुरुष पूरी श्रद्धा से श्री यंत्र को और उसके बाद माता के अष्ट रूपों को प्रणाम करें |
संध्या समय पूर्व दिशा में मुंह रख सके, इसी तरह आसन पर बैठ जाओ ।सामने पाटा रख कर उसके ऊपर रुमाल रखो । रुमाल पर चावल का छोटा सा ढेर करो । उस ढेर पर पानी से भरा तांबे का कलश रखकर, कलश पर एक कटोरी रखो । उस कटोरी में एक सोने का गहना रखो । सोने का न हो तो चांदी का भी चलेगा । चादी का न हो तो नकद रुपया भी चलेगा । बाद में घी का दीपक जला कर धूपसली सुलगा कर रखो ।

मां लक्ष्मीजी के बहुत स्वरूप है । और मां लक्ष्मीजी को 'श्रीयंत्र' अति प्रिय है । अतः 'वैभवलक्ष्मी' मे पूजन विधि करते वक्त प्रथम 'श्रीयंत्र' और लक्ष्मीजी के विविध स्वरूपो का सच्चे दिल से दर्शन करो । उसके बाद लक्ष्मी स्तवन का पाठ करो । बाद मे कटोरी में रखे हुए गहने या रुपये को हल्दी-कुमकुम और चावल चढ़ा कर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ । शाम को कोई मीठी चीज बनाकर उसका प्रसाद रखो । न हो सके तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है ।
आरती करके ग्यारह बार सच्चे ह्रदय से 'जय मॉं लक्ष्मी' बोले । बाद मे ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का दृढ संकल्प मॉं के सामने करो और आपकी जो मनोकामना हो वह पूरी करने को मॉं लक्ष्मीजी को बिनती करो । फिर मॉं का प्रसाद बॉंट दो । और थोड़ा प्रसाद अपने लिये रखो । अगर आप में शक्ति हो तो सारा दिन उपवास रखो और सिर्फ प्रसाद खा कर शुक्रवार करो । न शक्ति हो तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय खाना खा लो । अगर थोडी शक्ति भी न हो तो दो बार भोजन कर सकते हो । बाद मे कटोरी में रखा गहना या रुपया ले लो । कलश का पानी तुलसी क्यारे में डाल दो । और चावल पक्षियों को डाल दो । इसी तरह शास्त्रीय विधि अनुसार व्रत करने से उसका फल अवश्य मिलता है ।
गहने की पूजा करते समय लक्ष्मी स्तवन का पाठ करें |

लक्ष्मी स्तवन श्‍लोक

या रक्ताम्बुजवासिनी विलसिनी चंडांशु तेजस्विनी ॥

या रक्ता रुधिराम्बरा हरिसखी या श्री मनोल्हादिनी ॥

या रत्‍नाकर मन्थनाप्रगंटिता विष्णोस्वया गेहिनी ॥

सा मां पातु मनोरमा भगवती लक्ष्मीश्‍च पद्मावती ॥



"जो लाल कमल में रहती है, जो अपूर्व कांतिवाली है, जो असह्य तेजवाली है, जो पूर्ण रूप से लाल है, जिसने रक्‍तरूप वस्त्र पहने है, जो भगवान विष्णु को अति प्रिय है, जो लक्ष्मी मन को आनंद देती है, जो समुद्रमंथन से प्रकत हुई है, जो विष्णु भगवान की पत्‍नी है, जो कमल से जन्मी है और जो अतिशय पूज्य है, वैसी हे लक्ष्मी देवी! आप मेरी रक्षा करें"
व्रत कथा :

एक बड़ा नगर था । इस नगर कई लोग रहते थे । पुराने समय के लोग साथ-साथ रहते थे और एक दूसरे के काम आते थे । पर आजकल बहुत -से लोग अपने अपने काम में रत रहते है । घर के सदस्यों को भी एक-दूसरे की परवाह नहीं होती । भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गये है ।

कहावत है कि 'हजारों निराशा में एक अमर आशा छिपी हुई है । इसी तरह इतनी सारी बुराइयों के बावजूद नगर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे ।

ऐसे अच्छे लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी मानी जाती थी । शीला धार्मिक प्रकृति और संतोषी थी । उनका पति भी विवेकी और सुशील था ।

शीला और उनका पति इमानदारी से जीते थे । वे किसी की बुराई करते न थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे । उनकी गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थी और शहर के लोक उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे ।

शीला की गृहस्थी इसी तरह खुशी-खुशी चल रही थी । पर कहा जाता है कि 'कर्म की गति अकल है', विधाता के लिखे लेख कोई नहीं समझ सकता है । इन्सान का नसीब पल भर मे राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा । शीला के पति के अगले जन्म के कर्म भोगने के बाकी रह गये होंगे कि वह बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा । वह जल्द से जल्द 'करोडपति' होने के स्वप्न देखने लगा । इसलिये वह गलत रास्ते पर चढ़ गया और अपना सारा धन लूटा बैठा । याने रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उसकी हालत हो गई थी ।

शहर मे शराब, जुआ, चरस-गांजा वगैरह बुराइयाँ फैली हुई थी । उसमें शीला का पति भी फॅंस गया । दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई । जल्द से जल्द पैसे वाला बनने की लालच मे दोस्तों के साथ जुआ भी खेलने लगा । इस तरह बचाई हुई धनराशि, पत्‍नी के गहने, सब कुछ रेस-जुए में गंवा दिया था ।

इसी तरह एक वक्त ऐसा भी था कि वह सुशील पत्‍नी शीला को साथ मजे में रहता था और प्रभु भजन में सुख-शांति से वक्त व्यतीत करता था । उसके बजाय घर मे दरिद्रता और भूखमरी फैल गई । सुख से खाने की बजाय दो वक्त भोजन के लाले पड गये । और शीला को पति से अपशब्द भी सुनने पड़ जाते थे ।

शीला सुशील और संस्कारी स्त्री थी । उसको पति के बर्ताव से बहुत दुःख हुआ । किन्तु वह भगवान पर भरोसा करके बडा दिल रख कर दुःख सहने लगी । दुःख के बाद सुख आयेगा ही, ऐसी श्रद्धा के साथ शीला प्रभु भक्ति मे लीन रहने लगी ।

इस तरह शीला असह्य दुःख सहते-सहते प्रभुभक्ति में वक्त बिताने लगी । अचानक एक दिन दोपहर को उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी ।
शीला सोच में पड़ गई कि मुझ जैसे गरीब के घर इस वक्त कौन आया होगा?

फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर करना चाहिये, ऐसे संस्कार वाली शीला ने खड़े होकर द्वार खोला ।

देखा तो एक मांजी खड़ी थी । वे बड़ी उम्र की लगती थी । किन्तु उनके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था । उनकी ऑंखों में से मानो अमृत बह रहा था । उनका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से छलकता था । उनको देखते ही शीला के मन मे अपार शांति छा गई । वैसे शीला इस मांजी को पहचानती न थी । फिर भी उनको देखकर शीला के रोम-रोम आनंद छा गया । शीला मांजी को आदर के साथ घर में ले आयी । घर में बिठाने के लिए कुछ भी नही था । अतः शीला ने सकुचा कर एक फटी हुई चद्दर पर उनको बिठाया ।

मांजी ने कहा - 'क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं?

शीला ने सकुचा कर कहा - 'मां! आपको देखते ही बहुत खुशी हो रही है । बहुत शांति हो रही है । ऐसा लगता है कि मैं बहुत दिनो से जिसे ढूंढ रही थी वे आप ही है । पर में आपको पहचान नही सकती ।'

मांजी ने हॅंसकर कहा - 'क्यों? भूल गई? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर मे भजन-कीर्तन होते है, तब मै भी वहा आती हू । वहॉं हर शुक्रवार को हम मिलते है ।

पति गलत रास्ते पर चढ़ गया, तब से शीला बहुत दुःखी हो गई थी और दुःख की मारी वह लक्ष्मीजी के मंदिर में भी नही जाती थी । बाहर के लोगों के साथ नजर मिलाते भी उसे शर्म लगती थी । उसने याददाशत पर जोर दिया पर यह मांजी याद नही आ रहे थे ।

तभी माजी ने कहा, 'तू लक्ष्मीजी के मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी! अभी-अभी तू दिखाई नहीं देती थी, इसलिये मुझे हुआ कि तु क्यों नही आती है? कहीं बीमार तो नहीं हो गई है न? ऐसा सोच कर मैं तुझे मिलने चली आई हूँ ।

मांजी के अतिप्रेम भरे शब्दों से शीला का ह्रदय पिघल गया । उसकी ऑंखों में आसू आ गये । मांजी के सामने वह बिलख-बिलख कर रोने लगी । यह देख कर मांजी शीला के नजदीक सरके और प्यार भरा हाथ फेर कर सांत्वना देने लगे ।

मांजी ने कहा - 'बेटी! सुख और दुःख तो धूप और छांव जैसे होते है । सुख के पीछे दुःख आता है, तो दुःख के पीछे सुख भी आता है । धैर्य रखो बेटी! और तुझे क्या परेशानी है? तेरे दुःख की बात मुझे सुना । तेरा मन भी हलका हो जायेगा और तेरे दुःख का कोई उपाय भी मिल जायेगा ।'

मांजी की बात सुनकर शीला के मन को शांति मिली । उसने मांजी को कहा, मां! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और खुशियॉं थी । मेरे पति भी सुशील थे । भगवान की कृपा से पैसे की बात मे भी हमे संतोष था । हम शांति से गृहस्थी चलाते ईश्वर-भक्ति में अपना वक्त व्यतीत करते थे । यकायक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया । मेरे पति को बुरी दोस्ती हो गई । बुरी दोस्ती की वजह से वे शराब, जुआ, चरस-गांजा वगैरह बुरी आदतों के शिकार हो गये और उन्होने सब कुछ गॅंवा दिया ।

यह सुनकर मांजी ने कहा - 'कर्म की गति न्यारी होती है।' हर इन्सान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते है । इसलिये तू चिंता मत कर । अब तू कर्म भुगत चुकी है । अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेंगे । तू तो मां लक्ष्मीजी की भक्त हे । मां लक्ष्मीजी तो प्रेम और करुणा के अवतार है । वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती है । इसलिये तू धैर्य रख के मां लक्ष्मीजी का व्रत कर । इससे सब कुछ ठीक हो जायेगा ।

'मां लक्ष्मीजी का व्रत' करने की बात सुन कर शीला के चेहरे पर चमक आ गई । उसने पूछा, 'मां! लक्ष्मीजी का व्रत कैसे किया जाता है, वह मुझे समझाइये । मै यह व्रत अवश्य करूंगी ।'

मांजी ने कहा, 'बेटी! मां लक्ष्मीजी का व्रत बहुत सरल है । उसे 'वरदलक्ष्मी व्रत' या 'वैभवलक्ष्मी व्रत' कहा जाता है । यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है । वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है ।' ऐसा कह कर मांजी 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की विधि कहने लगी ।

'बेटी! वैभवलक्ष्मी व्रत वैसे तो सीधा सादा व्रत है । किन्तु कई यह व्रत गलत तरीके से करते है । अतः उसका फल नही मिलता । कई लोग कहते है कि सोने के गहने की हलदी-कुमकुम से पूजा करो । बस! व्रत हो गया । पर ऐसा नही है । कोई भी व्रत शास्त्रीय विधिपूर्वक करना चाहिये । तभी उसका फल मिलता है । सिर्फ सोने के गहने की पूजा करने से फल मिल जाता हो तो सभी आज लखपति बन गये होते । सच्ची बात यह है कि सोने के गहनो का विधि से पूजन करना चाहिये । व्रत की उद्यापन विधि भी शास्त्रीय विधि मुताबिक करनी चाहिये । तभी यह 'वैभवलक्ष्मी व्रत' फल देता है ।

यह व्रत शुक्रवार को करना चाहिये । सुबह में स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनो और सारा दिन मन मे 'जय मां लक्ष्मी', 'जय मां लक्ष्मी' का रटन करते रहो । किसी की चुगली नही करनी चाहिये । संध्या समय पूर्व दिशा में मुंह रख सके, इसी तरह आसन पर बैठ जाओ ।

सामने पाटा रख कर उसके ऊपर रुमाल रखो । रुमाल पर चावल का छोटा सा ढेर करो । उस ढेर पर पानी से भरा तांबे का कलश रखकर, कलश पर एक कटोरी रखो । उस कटोरी में एक सोने का गहना रखो । सोने का न हो तो चांदी का भी चलेगा । चादी का न हो तो नकद रुपया भी चलेगा । बाद में घी का दीपक जला कर धूपसली सुलगा कर रखो ।

मां लक्ष्मीजी के बहुत स्वरूप है । और मां लक्ष्मीजी को 'श्रीयंत्र' अति प्रिय है । अतः 'वैभवलक्ष्मी' मे पूजन विधि करते वक्त सौ प्रथम 'श्रीयंत्र' और लक्ष्मीजी के विविध स्वरूपो का सच्चे दिल से दर्शन करो । उसके बाद लक्ष्मी स्तवन का पाठ करो । बाद मे कटोरी में रखे हुए गहने या रुपये को हल्दी-कुमकुम और चावल चढ़ा कर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ । शाम को कोई मीठी चीज बनाकर उसका प्रसाद रखो । न हो सके तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है । फिर आरती करके ग्यारह बार सच्चे ह्रदय से 'जय मॉं लक्ष्मी' बोले । बाद मे ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का दृढ संकल्प मॉं के सामने करो और आपकी जो मनोकामना हो वह पूरी करने को मॉं लक्ष्मीजी को बिनती करो । फिर मॉं का प्रसाद बॉंट दो । और थोड़ा प्रसाद अपने लिये रखो । अगर आप में शक्ति हो तो सारा दिन उपवास रखो और सिर्फ प्रसाद खा कर शुक्रवार करो । न शक्ति हो तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय खाना खा लो । अगर थोडी शक्ति भी न हो तो दो बार भोजन कर सकते हो । बाद मे कटोरी में रखा गहना या रुपया ले लो । कलश का पानी तुलसी क्यारे में डाल दो । और चावल पक्षियों को डाल दो । इसी तरह शास्त्रीय विधि अनुसार व्रत करने से उसका फल अवश्य मिलता है । इस व्रत के प्रभाव से सब प्रकार की विपत्ति दूर हो कर आदमी मालामाल हो जाता है । संतान न हो उसे संतान प्राप्त होती है । सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रहता है । कुमारी लडकी को मनभावन पति मिलता है ।

शीला यह सुनकर आनंदित हो गई । फिर पुछा -'मॉं! आपने वैभवलक्ष्मी व्रत ' की जो शास्त्रीय विधि बताई है, वैसे मैं अवश्य करूंगी । किन्तु इसकी उद्यापन विधि किस तरह करनी चाहिये? यह भी कृपा करके सुनाइये ।'

मांजी ने कहा, 'ग्यारह या इक्कीस जो मन्नत मानी हो उतने शुक्रवार यह 'वैभवलक्ष्मी व्रत' पुरी श्रद्धा और भावना से करना चाहिये । व्रत के आखरी शुक्रवार को जो शास्त्रीय विधि अनुसार उद्यापन विधि करनी चाहिये वह मै तुझे बताती हूँ । आखरी शुक्रवार को खीर या नैवेध रखो । पूजन विधि हर शुक्रवार को करते है वैसेही करनी चाहिये । पूजन विधि के बाद श्रीफल फोडो और कमसे कम सात कुंवारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक करके उपहार दो और सब को खीर का प्रसाद देना चाहिये । फिर धनलक्ष्मी स्वरूप, वैभवलक्ष्मी स्वरूप, मॉं लक्ष्मीजी की छबि को प्रणाम करे । मॉं लक्ष्मीजी का यह स्वरूप वैभव देने वाला है । प्रणाम करके मन ही मन भावुकता से मॉं की प्रार्थना करते वक्त कहे कि, 'हे मॉं धनलक्ष्मी! हे मॉं वैभवलक्ष्मी! मैने सच्चे ह्रदय से आपका वैभवलक्ष्मी व्रत' पूर्ण किया है । तो हे मॉं! हमारी (जो मनकामना की हो वह बोलो) पूर्ण करो । हमारा सबका कल्याण करो । जिसे संतान न हो उसे संतान देना । सौभाग्यशाली स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना । कंवारी लडकी को मनभावन पति देना । आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत जो करे उनकी सब विपत्ति दूर करना । सब को सुखी करना । हे मॉं! आपकी महिमा अपरंपार है।'

इस तरह मॉं की प्रार्थना करके मॉं लक्ष्मीजी का 'धनलक्ष्मी स्वरूप' को भाव से वंदन करो ।'

मांजी के पास से 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की शास्त्रीय विधि सुनकर शीला भावविभोर हो उठी । उसे लगा मानो सुख का रास्ता मिल गया है । उसने ऑंखे बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि, 'हे वैभवलक्ष्मी मॉं! मैं भी मांजी के कहे मुताबिक श्रद्धा से शास्त्रीय विधि अनुसार 'वैभवलक्ष्मी व्रत' इक्कीस शुक्रवार तक करूंगी और व्रत की शास्त्रीय विधि अनुसार उद्यापन विधि करूंगी ।'

शीला ने संकल्प करके आंखे खोली तो सामने कोई न था । वह विस्मित हो गई कि मांजी कहॉं गये? यह मांजी दुसरा कोई नही था... साक्षात लक्ष्मीजी ही थी । शीला लक्ष्मीजी की भक्त थी । इसलिये अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए मॉं लक्ष्मी देवी मांजी का स्वरूप धारण करके शीला के पास आई थी ।

दूसरे दिन शुक्रवार था । सवेरे स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर शीला मन ही मन श्रद्धा से और पूरे भाव से 'जय मां लक्ष्मी, जय मां लक्ष्मी' का मन ही मन रटन करने लगी । सार दिन किसी की चुगली की नही । शाम हुई तब हाथ-पांव-मुंह धो कर शीला पूर्व दिशा मे मुंह करके बैठी । घर में पहले सोने के बहुत से गहने थे । पर पतिदेव ने गलत रास्ते पर चढ़ कर सब गहने गिरवी रख दिये थे । पर नाक की चुन्नी(कांटा) बच गई थी । नाक की चुन्नी निकालकर, उसे धो कर शीला ने कटोरी मे रख दी । सामने पाटे पर रुमाल रख कर मुट्ठी भर चवल का ढेर किया । उस पर तांबे का कलश पानी भर कर रखा । उसके ऊपर चुन्नी वाली कटोरी रखी । फिर मांजी ने कही थी, वह शास्त्रीय विधि अनुसार वंदन, स्तवन, पूजन किया । और घर में थोडी शक्कर थी, वह प्रसाद में रखकर 'वैभवलक्ष्मी व्रत' किया ।

यह प्रसाद पहले पति को खिलाया । प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड गया । उस दिन उसने शीला को मारा नही, सताया भी नही । शीला को बहुत आनंद हुआ । उनके मन मे वैभवलक्ष्मी व्रत' के लिये श्रद्धा बढ़ गई ।

शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक वैभवलक्ष्मी व्रत' किया । इक्कीसवे शुक्रवार को मांजी के कहे मुताबिक उद्यापन विधि कर के सात स्त्रियों को 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की सात पुस्तके उपहार मे दी । फिर माताजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगी - 'हे मां धनलक्ष्मी! मैने आप का वैभवलक्ष्मी व्रत करने की मनत मानी थी वह व्रत आज पूर्ण किया है । हे मॉं! मेरी हर विपत्ति दूर करो । हमारा सबका कल्याण करो । जिसे संतान न हो, उसे संतान देना । सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना । कंवारी लड़की को मनभावन पति देना । आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उनकी सब विपत्ति दूर करना । सब को सुखी करना । हे मां! आपकी महिमा अपार है । ऐसा बोल कर लक्ष्मीजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को प्रणाम किया ।

इस तरह शास्त्रीय विधिपूर्वक शीला ने श्रद्धा से व्रत किया और तुरन्त ही उसे फल मिला । उसका पति गलत रास्ते पर चला गया था, वह अच्छा आदमी हो गया और कडी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा । मां लक्ष्मीजी के वैभवलक्ष्मी व्रत के प्रभाव से उसको ज्यादा लाभ होने लगा । उसने तुरन्त शीला के गिरवी रखे गहने छुडा लिये । घर मे धन की बाढ सी आ गई । घर मे पहले जैसी सुख-शांति छा गई ।

वैभवलक्ष्मी व्रत का प्रभाव देख कर स्त्रिया भी शास्त्रीय विधिपूर्वक वैभवलक्ष्मी व्रत करने लगी ।

हे मां धनलक्ष्मी! आप जैसे शीला पर प्रसन्न हुई, उसी तरह आपका व्रत करने वाले सब पर प्रसन्न होना । सबको सुख-शांति देना । जय धनलक्ष्मी मां! जय वैभवलक्ष्मी मां!

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Durga Chalisa


दुर्गा चालीसा
नमो नमो दुर्गे सुख करनी, नमो नमो अंबे दुःख हरनी

निरंकार है ज्योति तुम्हारी, तिहु लोक फैली उजियारी

शशि ललाट मुख महाविशाला, नेत्र लाल ब्रुकुति विकराला

रूप मातु को अधिक सुहावे, दरश करत जन अति सुख्पावे

तुम संसार शक्ति ले किना, पालन हेतु अन धन दिना

अन्नपूर्णा हुई जग पाला, तुम ही आदि सुंदरी बाला

प्रलयकाल सब नाशन हारी, तुम गौरी शिव शंकर प्यारी

शिव योगी तुम्हे गुन गावे, ब्रह्म विष्णु तुम्हे नित ध्यावे

रूप सरस्वती का तुम धारा, देत सुबुद्धि ऋषि मुनि उबारा

धारा रूप नरसिंह को अम्बा, प्रगट भई फाड़ कर खम्बा

रक्षा कर प्रहलाद बचायो, हिरान्यकुश को स्वर्ग पठायो

लक्ष्मी रूप धरो जग माहि, श्री नारायण अंग समाही

शिर्सिंधू में करत विलासा, दयासिन्धु दीजे मन आसा

हिंगलाज में तुम्ही भवानी, महिमा अमित न जात बखानी

मातंगी धूमावती माता, भुन्वेंश्वरी बगला सुख दाता

श्री भैरव तारा जग तारिणी, षिन भाल भावः दुःख निवारिणी

केहर वाहन सोह भवानी, लंगूर वीर चलत अगवानी

कर में खप्पर खडग विराजे, जाको देख काल डर भाजे

सोहे अस्त्र और त्रिशूला, जाते उठत शत्रु हिय शूला

नगरकोट में तुम्ही बिराजत, तिहु लोक में डंका बाजत

शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे, रक्त बीज शंखन संहारे

महिषासुर नरप अति अभिमानी, जेहि एजी भार माहि अकुलानी

रूप कराल कलि को धरा, सेन सहित तुम तीही संहार

परी भीड़ संतन पर जब जब, भई सहाय मातु तुम तब तब

अमर पुरी औरों सब लोक, तब महिमा सब रहे अशोका

ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी, तुम्हे सदा पूजे नर नारी

प्रेम भक्ति से जो जस गावे, दुःख दारिद्र निकट नही आवे

ध्यावे तुम्हे जो नर मन लाइ, जनम मरण ते छुटी जाई

जोगी सुर-मुनि कहत पुकारी, योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी

शंकर आचारज ताप कीनो, काम अरो क्रोध जीती सब लीनो

निशदिन ध्यान धरो शंकर को, काहू काल नही सुमिरो तुमको

शक्ति रूप को मर्म न पायो, शक्ति गयी तब मन पछतायो

शरणागत हुई कीर्ति बखानी, जय जय जय जगदम्ब भवानी

भई प्रसन आदि जगदम्बा, दी शक्ति नही किन विलम्बा

मोको मातु कष्ट अति गेरो, तुम बिन कौन हरे दुःख मेरो

आशा तृष्णा निपट सतावे, रिपु मुरख मोहि अति डर पावे

शत्रु नाश कीजे महारानी, सुमिरो इकचित तुम्हे भवानी

करो कृपा हे मातु दयाला, रिधि सीधी डे करहु निहाला

जब लगी जियो दयाफल पाऊ, तुम्हारो जस माय सदा सुनु

दुर्गा चालीसा जो कोई गावे, सब सुख भोग परम पद पावे

देविदास शरण निज जानी, करहु कृपा जगदम्ब भवानी

Maa Parvati Bhajan


जय जय गिरिबरराज किसोरी ।

जय महेस मुख चंद चकोरी ॥
जय गज बदन षडानन माता ।

जगत जननि दामिनि दुति गाता ॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना ।

अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना ॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि ।

बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि ॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी ।

बरदायनी पुरारि पिआरी ॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे ।

सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे ॥

पार्वती मां की आरती


पार्वती मां की आरती

जय पार्वती माता, मैया जय पार्वती माता,ब्रह्म सनातन देवी, शुभ फल की दाता ।
ॐ जय ……

अरिकुल पद्म विनासनि, जय सेवक त्राता,जग जीवन जगदंबा, हरिहर गुण गाता ।
ॐ जय ……

सिंह को वाहन साजे, कुण्डल है साथा,देव वधू जहं गावत, नृत्य करत ता था ।
ॐ जय ……

सतयुग शील सुसुंदर, नाम सति कहलाता,हेमांचल घर जन्मी, सखियन रंगराता ।
ॐ जय ……

शुंभ निशुंभ विदारे, हेमांचल स्याता,सहस भुजा तनु धरिके, चक्र लियो हाथा ।
ॐ जय ……

सृष्टि रूप तू ही जननी, शिव संग रंगराता,नंदी भृंगी बीन लही, सारा मदमाता ।
ॐ जय ……

देवन अरज करत हम, चित को लाता,गावत दे दे ताली, मन में रंगराता ।
ॐ जय ……

श्री प्रताप आरती मैया की, जो कोई गाता,सदा सुखी नित रहता, सुख संपति पाता ।
ॐ जय ……

अंबा मां की आरती


अंबा मां की आरती

जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी,तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को । उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै । रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी । सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती । कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती, धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे । मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी । आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

चौंसठ योगिनी मंगल गावत, नृत्य करत भैंरू । बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता । भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी । मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती । श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥
ॐ जय अंबे गौरी…

श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे । कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥
ॐ जय अंबे गौरी…