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श्री महालक्ष्मी व्रत कथा

महालक्ष्मी पूजन विधि

यह व्रत भादों सुदी अष्टमी से प्रारंभ होता है और १६ दिन तक यानि बदी में अष्टमी तक किया जाता है | प्रथम अष्टमी के दिन प्रातः पूजन का स्थान लिपवा पुतवा कर महालक्ष्मीजी की प्रतिमा को शुद्ध जल से नहला कर चौकी पर समस्त सामग्री सहित रखें और स्वयं स्नान कर पूजन करें, भोग लगावें तथा ध्यान पूर्वक कथा पढ़ें | दुसरे दिन से कथा लेखनी के अनुसार पूजन करें | तत्पश्चात ब्राह्मिनों को भोजन कराके अपना व्रत खोलें |

पूजन सामग्री

लक्ष्मी व गणेशजी को प्रतिमा, सिंदूर, केले के स्तम्भ, पञ्च पल्लव, अगरबत्ती, धुप, दीप, नैवैध्य, रोली, चावल, फल, फूल माला, कपूर, चन्दन, पान, कलावा, सुपारी, घृत, कमल का फूल, सूप, दूब, वस्त्र, आभूषण, सोलह गांठों का सूत, कलश, लाल वस्त्र, गुड़, बतासे, पंचामृत आदि |

श्री महालक्ष्मी व्रत कथा प्रारंभ

एक समय धर्मराज युधिष्टिर भगवन श्री कृष्ण से बोले-"हे पुरुषोत्तम ! खोये हुए मान सम्मान की पुनः प्राप्ति कराने वाला और पुत्र आयु सरवैश्वर्य तथा मनवांछित फल को देने वाला कोई वृतांत मुझसे कहिये | " श्री कृष्णजी ने युधिष्टिर से कहा-" हे राजन ! सतयुग के प्रारंभ में जब दैत्यराज वृत्तासुर ने देवताओं के स्वर्ग लोक में प्रवेश किया था तब यही प्रश्न इंद्र ने नारद मुनि से किया था | इंद्र के पूछने पर नारद ने तब इसप्रकार का वर्णन किया |

पूर्वकाल में पुरन्दरपुर नाम का एक अत्यंत रमणीय नगर था | वह नगर अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों से युक्त होने के कारण संसार भर में प्रसिद्ध था | उसमे मंगलसेन नाम का राजा राज करता था | उसकी चिल्लदेवी और चोलदेवी नामक रूपवती रानियाँ थी | एक समय राजा मंगलसेन अपनी रानी चोलदेवी के साथ महल के शिखर पर बैठे थे | वहां से उनकी दृष्टि समुद्र के जल से घिरे स्थान पर पड़ी | उस जगह को देखकर राजा अति प्रसन्न हुआ और अपनी रानी से बोला-"हे चंचलाक्षी ! मै उस स्थान पर तुम्हारे लिए एक परम मनोहर उद्ध्यान बनवाऊंगा | " राजा के ऐसे वाक्य को सुनकर रानी ने कहा - "हे कान्त ! आपकी जैसी इच्छा हो आप वैसा कीजिये | " राजा ने अपने विचार के अनुसार उसी स्थान पर एक सुंदर बगीचा बनवा दिया | वह बगीचा थोड़े दिनों में अनेक वृक्ष लता फूलों और पक्षीगन से संपन्न हो गया |

एक समय उस उद्ध्यान में मेघ तुल्य काला और वर्ण चंचल नेत्रों से युक्त शुकर घुस आया | उसने आकर वृक्षों को तोड़ डाला और उद्ध्यान को चौपट कर डाला | यही नहीं उस शुकर ने बगीचे के कई रखवालों को मार डाला | तब उद्ध्यान के रक्षक उससे भयभीत होकर राजा के पास गए और सब हाल कह सुनाया | अपने परम रम्य उद्ध्यान के उजड़ने की बात सुनकर राजा के नेत्र क्रोध से लाल हो गए | राजा ने अपनी सेना को आज्ञा दी की शीघ्र जाकर उस शुकर को मार डालो | यही नहीं राजा स्वयं मतवाले हाथी पर सवार हो उद्ध्यान की ओर चल पड़ा | तब राजा बोला की यदि किसी की बगल से यह शुकर निकल जायेगा तो मै उस सिपाही का सर शत्रु की भांति काट डालूँगा | राजा के ऐसे वचन सुनकर वह शुकर जिस भाग में राजा खड़ा था उसी मार्ग से मनुष्यों को विदीर्ण करता हुआ निकल गया | राजा अपने हाथी को मारता ही रह गया | राजा लज्जित होकर उस शुकर का पीछा करते हुए सिंह, बाघों से युक्त घोर वन में जा निकला | शुकर से मुठभेड़ हुई और राजा ने अपने बाण से उसे भेद दिया | बाण लगते ही शुकर अपने अधम शरीर को छोड़कर दिव्य गन्धर्व रूप में आ गया और विमान पर चढ़कर स्वर्ग की ओर जाने लगा | गन्धर्व ने राजा से कहा, हे महिपाल ! आपने मुझे शुकर योनी से छुड़ाकर बड़ी कृपा की |

"मै चित्ररथ नामक गंधर्व हूँ | एक समय जबकि ब्रह्माजी देवताओं के बीच में बैठे हुए मेरा गायन सुन रहे थे, तब मुझसे ताल स्वर की भूल हो जाने से उन्होंने रुष्ट होकर मुझे श्राप दिया था की तू पृथ्वी पर शुकर होगा | जिस समय राजा मंगलसेन तुझे अपने हाथों से मारेंगे तब तू शुकर योनी से मुक्त होगा | सो यह श्राप आज पूरा हुआ| हे राजन ! मै आपके कृत्य से प्रसन्न हुआ | आप भविष्य में महालक्ष्मी व्रत करके सर्वभोम राजा हो जायेंगे, ऐसा मेरा आशीर्वाद है |"

वह चित्ररथ गन्धर्व राजा मंगलसेन को ऐसा आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गया | राजा भी वहां से अपने नगर के लिए चलने को उद्ध्यत हुआ, त्यों ही उसे एक ब्राह्मिण दिखाई दिया | राजा ने ब्राह्मिण से प्रश्न किया की, हे देव ! आप कौन हैं ? इस पर ब्राह्मिण ने उत्तर दिया, हे राजन ! मै आपके ही राज्य का एक नागरिक हूँ | आप इस समय दुखी दिखाई देते हैं इसलिए कहिये मै आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ | राजा ने तब ब्राह्मिण से कहा की वह उसके घोड़े को निकट के जलाशय से पानी पिला लावे, ब्राह्मिण ने ऐसा ही किया | वह घोड़े की पीठ पर सवार होकर जलाशय की ओर जाता है | बटुक जलाशय के निकट पहुँच कर देखता है की वहां दिव्य वस्त्र और अलंकार पहने हुए बहुत सी स्त्रियाँ कथा कह रही हैं | तदन्तर वह बटुक भी उन स्त्रियों के पास जाकर अपना परिचय देकर नाना प्रकार के प्रश्न करने लगा | हे स्त्रियों ! आप यहाँ भक्ति भाव से क्या कर रही हैं ? इसके करने से क्या फल मिलता है ? इन देवियों ने तरस खाकर उस ब्राह्मिण से कहा- यहाँ महालक्ष्मीजी की पूजा हो रही है | और जो कथा हम कह रही हैं यह उसी व्रत की कथा है | अतः आप एकाग्रचित्त होकर इस कथा को सुने | इस व्रत को करने से हर प्रकार की संपत्ति प्राप्त हो सकती है तथा अपना खोया यश भी प्राप्त हो सकता है , इसमें कोई संदेह न करें | इसप्रकार बटुक को उन स्त्रियों ने व्रत का वृतांत कह सुनाया | बटुक ने घोड़े को जल पिलाया और राजा के लिए कमल के पत्ते व जल लेकर वहां से लौट आया | ब्राह्मिण ने लौटकर सारा किस्सा राजा को सुनाया और यही व्रत की कथा राजा से कह सुनाई | महालक्ष्मी का व्रत व पूजन करके राजा अपने ऐश्वर्य का भागी बनकर राजा उस बटुक को साथ लेकर अपनी राजधानी लौट आया |

सबसे पहले राजा अपने मित्र बटुक के साथ अपनी बड़ी रानी चोलदेवी के महल में जाता है | रानी राजा के हाथ में व्रत का बंधा हुआ डोरा देखकर रुष्ट हो जाती है | वन में यह डोरा किसी अन्य स्त्री ने राजा के हाथ में बंधा है ऐसा विचार कर वह डोरा राजा के हाथ से तोड़कर फेंक देती है | उसी समय राजा की छोटी रानी चिल्लदेवी वहां आ पहुँचती है और उस डोरे को उठा लेती है और पास खड़े बटुक से उस डोरे का रहस्य जान लेती है | दुसरे वर्ष जब महालक्ष्मी व्रत का दिन आता है, तब राजा अपने हाथ के डोरे को देखते हैं और चिल्लदेवी के महल में व्रत पूजा आदि का सन्देश पाकर पहुँच जाते हैं | वे इसप्रकार चोलदेवी से नाराज हो जाते हैं और चिल्लदेवी से प्रसन्न हो जाते हैं | पूजन के दिन ही लक्ष्मीजी चोलदेवी रानी के महल में एक वृध्द का रूप धारण करके पहुँचती है, वहां चोलदेवी लक्ष्मीजी का अनादर करती है, तब अप्रसन्न होकर लक्ष्मीजी चोलदेवी को श्राप देती है कि जा तेरा मुख शुकरी के जैसा हो जायेगा। ज़ब तू अंगिरा ऋषि के यहाँ जाएगी तब वहां कृत्य से अपना स्वरुप प्राप्त करेगी।
                     इसके बाद लक्ष्मीजी रानी चिल्ल्देवी के महल में गई। वहां रानी ने उनका बड़ा आदर किया तो प्रसन्न होकर लक्ष्मीजी ने कहा - "हे रानी, मै तेरे पूजन तथा आदर सत्कार से प्रसन्न हुई हुँ । तू वर मांग ।  " रानी ने कहा - "हे देवी, जो भी तुम्हारे इस व्रत को करे, उसके घर में सदा निवास करो तथा जो भी इस व्रत कथा को पढ़े या श्रवण करे उसकी मनोकामनाएं पूरी किया करो । मै  आपसे यही वरदान चाहती हूँ। " तब लक्ष्मीजी वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गई.।
                   उस दिन रानी चोलदेवी शूकरी जैसे मुख हो जाने के कारण अपने द्वारपालों से अपमानित होती है। जब रानी अपना मुख दर्पण में देखती है तो पछताती है। फिर वह लक्ष्मीजी के बताये अनुसार अंगिरा ऋषि के कहेनुसार महालक्ष्मी व्रत करती है और अपना खोया रूप प्राप्त करती है। ऋषि के आग्रह से राजा मंगलसेन अपनी बड़ी रानी को ग्रहण करता है।
                 इसप्रकार राजा अपनी दोनों पत्नियों के साथ बहुत वर्षों तक राज्य करते रहे। वह अपने समय के चक्रवर्ती राजा माने जाने लगे और उन्होंने बटुक ब्राह्मण को भी विशाल राज्य का मंत्री बना दिया। राजा अपनी दोनों पत्नियों के इस व्रत को निरंतर करने के कारण अंत में स्वर्ग लोक गए और आकाश में उन्हें श्रवण नक्षत्र का रूप प्राप्त हुआ । जो भी इस व्रत को करेगा वह इस लोक में समस्त सुख भोगकर अंत में मोक्ष को प्राप्त होगा। अतः तुम भी वत्रासुर दैत्य का नाश करने हेतु इस व्रत को करो, तुम्हारी भी मनोकामना पूरी होगी। इति।
 जय माँ महालक्ष्मीजी ॥ 

दीपावली कथा

दीपावली कथा- श्री महालक्ष्मी व्रत कथा

एक समय धर्मपुत्र युद्धिष्ठिर ने हाथ जोड़कर भगवान श्री कृष्ण से विनय की कि- हे भगवान ! कृपाकर आप हमे कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे हमारा नष्ट राज्य व् लक्ष्मी पुनः प्राप्त हो |

श्री भगवान बोले- हे राजन ! जब दैत्यराज बलि राज्य किया करते थे, तब राज्य की सारी प्रजा सुखी थी और मेरा भी वह प्रिय भक्त था | एक बार उसने १०० अश्वमेघ यज्ञ करने की प्रतिज्ञा की | उसके जब ९९ यज्ञ पूरे हो चुके और १ यज्ञ बाकी था, तब इंद्र अपने सिंहासन छिनने के भय से रूद्र आदि देवताओं के पास पहुंचे, किन्तु उसका कुछ भी उपाय वे न कर सके | तब सब देवता इंद्र को साथ लेकर क्षीरसागर में भगवान् विष्णु के पास गए व् पुरुषशुक्त आदि वेद मंत्रो से भगवान् की स्तुति की, तब भगवान् प्रकट हुए | उनके सम्मुख इंद्र ने अपना दुःख सुनाया | भगवान् बोले- इंद्र तुम घबराओ नहीं, मै तुम्हारे भय का अंत कर दूंगा | यह कहकर उन्हें अपने अपने धाम में भेज दिया तथा स्वयं भगवान् वामन का अवतार धारण करके १०० वें यज्ञ में राजा बलि के यहाँ पहुँचे | राजा से उन्होंने तीन पैर पृथ्वी का दान माँगा और दान संकल्प हाथ में लेकर भगवान् ने एक पाँव से सारी पृथ्वी नाप ली , दूसरे पाँव से अंतरिक्ष और तीसरा चरण बलि के सर पर रखा | इतना होने पर श्री वामन देवजी ने राजा से वर मांगने को कहा | वर में राजा ने कहा - कार्तिक के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी एवं अमावस्या तीन दिन इस धरती पर मेरा शासन रहे | इन दिनों सारी जनता दीप दान दीपावली पूजा आदि करके उत्सव मनाये तथा लक्ष्मीजी का पूजन हो | लक्ष्मीजी का निवास हो |

इसप्रकार वर मांगने पर विष्णु भगवान् ने कहा कि हे राजन ! यह वर हमने दिया | इस दिन लक्ष्मीजी का पूजन करने वाले के यहाँ लक्ष्मी का निवास होगा और अंत में मेरे धाम को प्राप्त होगा | यह कहकर भगवान् ने राजा बलि को पाताल लोक का राज्य देकर पाताल भेजा और इंद्र का भय दूर किया | तभी से महालक्ष्मी पूजन एवं दीपावली आदि का उत्सव मनाया जाता है | जिसके फलस्वरूप मनाने वाले के घर में कभी लक्ष्मी का अभाव नहीं होता |

भगवान् श्री कृष्ण बोले- हे राजन ! एक कथा और सुनिए | मणिपुर नामक नगर में एक राजा था, जिसकी पत्नी पतिव्रता और धर्मपारायण थी | एक दिन उसको पत्नी छत पर स्नान के निमित्त अपने गले के सुन्दर बेशकीमती नौलखा हार को उतारकर वहां रखकर स्नान करने लगी | उसी समय आकाश में मंडराती हुई चील की दृष्टि उस हार पर पड़ी और वह उसे लेकर उड़ गयी | किसी स्थान पर एक गरीब बुढिया की झोपड़ी पर एक मारा हुआ सांप पड़ा था, सो चील की दृष्टि सर्प पर पड़ते ही चील हार छोड़कर सर्प को ले चम्पत हो गई | रानी अपना हार चील को ले जाते देखकर उदास हो गयी तथा थोड़ी देर बाद राजा के आने पर उसने सारा वृतांत राजा से कहा | राजा ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हार अवश्य मिल जायेगा | यह कहकर राजा अपनी सभा में पहुंचा और सारे नगर में ढिंढोरा पिटवाया कि जो रानी का हार लाकर देगा वह मनचाहा वरदान पायेगा |
दूसरे दिन वह वृद्धा रानी का हार लेकर पहुंची और वह हार दे दिया | राजा ने इनाम मांगने के लिया कहा | उसने कहा कि आज से आठवें दिन महालक्ष्मी पूजन व् दीपावली है उस दिन नगर भर में कोई पूजन व् दीपावली न करे, वह सब मै ही करुँगी | उसके लिए तेल, बत्ती, दीपक आदि सब मेरे घर भिजवा दें | राजा आश्चर्य से पूछने लगा इस इनाम से तुम्हे क्या प्राप्त हुआ? वृद्धा बोली- राजन इस दिन लक्ष्मी पूजन व् दीपावली करने से महालक्ष्मीजी प्रसन्न होती है तथा सदा उसके घर में स्थिर रहती हैं | राजा बोला- मुझे लक्ष्मी पूजा करना है | वृद्धा बोली- पहले मै पूजा करुँगी फिर आप करना | ऐसा करने पर राजा व् वृद्धा के घर में अटूट संपत्ति का निवास हो गया | इसलिए लक्ष्मी कि प्रसन्नता के लिए महलों से लेकर झोपड़ों तक सर्वत्र ही लक्ष्मीजी कि पूजा होती है |
भगवान् श्री कृष्ण बोले - हे धर्मपुत्र | श्री लक्ष्मीजी के पूजन तथा दीपावली उत्सव से लक्ष्मी कि प्राप्ति होती है इसलिए हे राजन ! तुम्हारा खोया हुआ राज्य फिर से प्राप्त हो जायेगा |

श्री लक्ष्मी पूजा श्लोक

ॐ श्रीश्चते लक्ष्मीश्चपत्न्या वहोरात्रे पश्र्वेनक्श्त्रानि रूपमश्विनो व्यात्तम |
इष्णनिषाणामुंमsईशान सर्वलोकंsईशान || लक्ष्मयै नमः ||

श्री लक्ष्मी महात्म्य वृत्त कथा





गुरुवार को माता लक्ष्मी की कथा सुनने से मन की इच्छा पूर्ण होती है, धन की प्राप्ति होती है, संतान दीर्घायु होती है तथा दुःख दारिद्रय नष्ट होता है |

श्री लक्ष्मी विविध रूपिणी हैं | लक्ष्मीजी के अनेक नाम हैं; कैलाश में रहने वाली पार्वती, क्षिराब्धि की सिन्धुकन्या, स्वर्ग की महालक्ष्मी, भूलोक में रहने वाली लक्ष्मी, ब्रम्हलोक की सावित्री, गोलोक की राधिका, वृन्दावन में रहने वाली राजेश्वरी, चन्दन वन की चंद्रा, चम्पक वन की विरजा, पद्मवन की पद्मावती, मालती वन की मालती, कुंदनवन की कुंदर्दाती, केतकी वन की सुशीला, कन्दब वन की कन्दब माला, राजगृह में रहने वाली राजलक्ष्मी और घर घर की गृहलक्ष्मी ऐसे विविध रूप से और विविध नाम से लक्ष्मी देवी प्रसिद्ध हैं |

ऐसी महालक्ष्मी की यह कहानी है | सौराष्ट्र देश की,द्वापर युग की | वहां भद्रश्रवा नाम का राजा राज्य करता था | वह पराक्रमी था | चार वेद, छः शास्त्र, अठारह पुराण आदि का इन्हें ज्ञान था | उनकी रानी का नाम था सूरतचन्द्रिका | वह लावण्यमयी, सुलाक्षनी और पतिव्रता थी | उस दम्पति की आठ संताने थी | सात पुत्र और एक कन्या | कन्या का नाम था शामबाला | एक दिन श्री लक्ष्मी जी के मन में आया की राजा के राजगृह में जाकर निवास करें, जिसके कारण राजा अपनी प्रजा को अधिक सुख देगा | गरीब के घर अगर मै रहूँ तो वह सारी धन संपत्ति खा लेगा | इसलिए लक्ष्मीजी ने वृद्ध ब्राह्मिण स्त्री का रूप लिया | हाथ में आधार के लिए एक लकड़ी ले ली और उसका सहारा लेते लेते वे सूरत चन्द्रिका रानी के महल के दरवाजे में खड़ी हो गयी | उन्हें देखकर रानी की एक सेविका सामने आ गयी | उसने उस वृद्धा स्त्री की पूछताछ की | वृद्धा ने अपना नाम, पति का नाम, रहने का स्थान आदि समुचित जानकारी दे दी | वृद्धा स्त्री के रूप की लक्ष्मी माता कहने लगी- "मेरा नाम है कमला, पति का नाम भुवनेश, हम लोग द्वारका में रहते हैं | तुम्हारी रानी पूर्वजन्म में एक वैश्य की पत्नी थी | वह वैश्य बहुत दरिद्र था, हर दिन दोनों में लड़ाई हो जाती | उसका पति उसे बहुत मारपीट करता, इस हालत से वह बहुत परेशान हो गयी और घर छोड़कर चली गयी | वन में बिना कुछ खाए-पिए घुमती रही | उसकी यह हालत देखकर मुझे उसकी दया आई | धन संपत्ति देने वाली श्री लक्ष्मी जी की कहानी मैंने उसे सुनाई | मेरे कथानुसार उसने लक्ष्मी वृत्त का पालन किया | लक्ष्मी देवी उससे प्रसन्न हो गयी, उसका दारिद्र्य नष्ट हो गया, संतति संपत्ति से उसका घर भर गया, आनंद हो गया | जितने साल उन्होंने लक्ष्मी वृत्त का पालन किया उतने हजार वर्ष उनको आनंद प्राप्त हुआ| उन्हें राजकुल में जनम प्राप्त हुआ | लेकिन रानी को अब अपने वृत्त का विस्मरण हो गया है | उन्हें स्मरण दिलाने मै यहाँ आई हूँ |" रानी की सेविका ने उनसे लक्ष्मी व्रत की जानकारी पूछी | पूजा विधि की भी जानकारी ली | वृद्धा रूपधारी श्रीलक्ष्मी ने व्रत की जानकारी और महात्म्य का कथन किया | इसके बाद सेविका वृद्धा को धन्यवाद दे रानी को उनका सन्देश देने चली गयी |

राज वैभव में रहने वाली रानी को अपने ऐश्वर्य का बहुत घमंड था, वह उन्मत्त हो गयी थी | वृद्धा का सन्देश सुनकर वह यकायक गुस्से में आ गयी और वृद्ध ब्राह्मिण स्त्री को अपमानित किया, उसके साथ मारपीट भी की | लेकिन वह साक्षात् लक्ष्मीजी का रूप है यह बात रानी को मालूम न थी | रानी का बुरा बर्ताव देखकर लक्ष्मीजी ने वहां रहना पसंद नहीं किया | अपने खुद के निवास में ही रहना पसंद किया | वह वहां से निकली, कुछ ही दूरी पर उन्हें शामबाला मिली | उसे सारी जानकारी मिली | उसने उस वृद्धा स्त्री से क्षमा याचना की तब लक्ष्मीजी को उस पर दया आ गयी | उन्होंने शामबाला को लक्ष्मी व्रत की जानकारी दी | वह दिन मार्गशीर्ष मास का प्रथम गुरुवार था | शामबाला ने भाव भक्ति से लक्ष्मी व्रत का पालन किया | इसकी फल प्राप्ति यह हुई की सिद्धेश्वर नामक राजा के मालाघर नामक पुत्र से उसका विवाह संपन्न हुआ | उसे बड़ा वैभव प्राप्त हुआ | वह अपने पति के साथ राज वैभव में रहने लगी |

इधर लक्ष्मी कोपायमान होने के कारण राजा भाद्र्श्रवा और रानी सूरत चन्द्रिका इनके राज का अस्त हुआ | वैभव ऐश्वर्य का लोप हुआ और उनकी दशा बड़ी शोचनीय हो गयी | एक दिन सूरतचन्द्रिका अपने पति से बोली- "अपनी बेटी का पति राजा है, उसके पास जाओ, अपनी दशा बताओ | उसे दया आएगी और वह कुछ संपत्ति जरुर देगा |"

भद्र्श्रवा शाम बाला के पति के राज्य में गया | एक तालाब किनारे विश्राम के लिए बैठ गया | इतने में शाम बाला की कुछ दासियाँ जलकुम्भ लेकर जल भरने के लिए वहां आई | राजा भद्र्श्रावा को उन्होंने देखा | उन दासियों ने उनके बारे में पूछताछ की | उन्होंने सब कुछ बताया | वह अपनी शाम बाला के ही पिता हैं यह जानने पर दासियाँ दौड़कर शामबाला के पास आई, सारी जानकारी उसे बताई | शामबाला अपने पिताजी को बड़े ठाठबाठ के साथ अपने महल में लायी | उनकी आवभगत की, आदर सत्कार किया | वह जब वापस जाने को निकले तब उसने उन्हें हांडी भर धन भेट किया |

भद्र्श्रवा अपने घर पहुँच गया | सूरत चन्द्रिका को हर्ष हुआ उसने भेंट हांडी खोली | हांडी में धन की जगह कोयला भरा हुआ था | लक्ष्मीजी की कृपा से यह चमत्कार हो गया था |

कुछ दिन बीत गए | अब सूरतचन्द्रिका अपनी बेटी के घर गयी | वह दिन था मार्गशीर्ष मास का अंतिम गुरुवार | शामबाला ने लक्ष्मी व्रत किया था | अपनी माताजी से भी यह व्रत करवाया | सूरतचन्द्रिका अपने घर वापस आ गयी | उसने लक्ष्मी व्रत किया था इसलिय उसे पहले सा वैभव, राजैश्वार्य पुनः प्राप्त हुआ | कुछ दिन शामबाला मायके में आ गयी | लेकिन अपने पिताजी को कोयला दिया यह गुस्सा सुरत्चंद्रिका के मन में था इसलिए वहां शामबाला की कोई पूछताछ नहीं हुई | उसका वहा अनादर हुआ लेकिन वह क्रोधित नहीं हुई | वहां से निकली और निकलते समय कुछ नमक लिया | वापस आने पर पति ने पुछा- "शामबाला ! मायके से क्या लायी ?" तब वह बोली-"राज्य का तथ्यांत सार लेकर आई हूँ |" पतिदेव बोले-"इसका क्या मतलब?" उसने जवाब दिया-"कुछ दिन ठहरो, सारी बातें समझ में आ जाएगी |" उस दिन उसने भोजन की सारी चीजे बिना नमक के पकाने का आदेश दिया | पति देव को उसने भोजन परोसा, उन्हें नमक के बिना सारे खाद्य पदार्थ रुचिहीन लगे | बाद में उसने भोजन थाल में कुछ नमक रखा, खाद्य पदार्थ में नमक मिलाया तो भोजन रुचिमय लगने लगा | यही है " राज्य का सार " , पति को यह बात समझ में आ गयी |
संक्षेप में, इसप्रकार से जो कोई श्री लक्ष्मी व्रत श्रृद्धा युक्त भाव से करेगा तो उसे लक्ष्मी की प्राप्ति होगी | सुख शांति का लाभ होगा | मनोकामनाएं पूर्ण होगी | लेकिन धन-धान्य प्राप्त होने पर लक्ष्मीजी का व्रत करना न भूले | हर गुरुवार कथा का पठान- श्रवण करें | ऐसी यह श्री लक्ष्मी व्रत की कहानी गुरुवार को सभी को सफलता प्रदान करने वाली हो | शुभ भवतु |

||ॐ श्री लक्ष्मी देवी नमः ||

श्री लक्ष्मी नमनाष्टक


नमस्कार महामये, जगन्माते परत्परे |
शंख चक्र गदा हस्ते, लक्ष्मी माते नमोस्तुते |१|
आदि नहीं अंत नहीं, आद्यशक्ति सचमुच तू |
विश्वधारे विष्णुकांते, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |२|
सर्वव्यापी सर्वसाक्षी, सुद्धसत्वस्वरूपिणी |
सर्वज्ञे सिन्धु सम्भुते, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |३|
कमले कमल्नेत्रे कोमले कमलासने |
मंगले मुदिते मुग्धे, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |४|
शुभ्रवस्त्रधारिणी गरुढ़ध्वज्भामिनी |
दिव्यलंकार भूषिते, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |५|
सर्व दुःख हरे देवी, भुजंग शयननाग्नने |
भगवती भाग्यदासी, लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |६|
सिद्धिबुद्धि भुक्तिमुक्ति, संतति शंखसम्प्दा |
आयु आरोग्य देने वाली लक्ष्मिमाते नमोस्तुते |७|
नमोनमः महालक्ष्मी धनवैभवदाय के |
दैन्य हमारे दूर करो, प्रार्थी मिलिंद माधव |८ |
पठन श्रवण भावे नित्य करे नम्नाश्टका |
मनोकामना प्राप्त हो, सत्य श्रृद्धायुक्त भाबुका |९|

श्री महालक्ष्मी देवीजी की आरती


जयदेवी जयदेवी श्री महालक्ष्मी माते, प्रसन्न होकर व्रत दे हमे माते |
श्री विष्णुकांते तू विश्वेश्वरी सत्ता, स्थिरचर धन देगी लक्ष्मीव्रत करता |
जननी तुझ सामान नहीं त्रिभुवन में, सुर वर मस्तक वन्दित तव चरणों में |
कृपा प्रसाद से हो लाभांत सुखशांति, चित्त कलेश हारती माते, नहीं रहती आपत्ति |
वैभव ऐश्वर्य का और अपर धन का, दान देगी दयाले निरंतर सौख्यका |
मिलिंद माधव तुम्हारी करते भावे अर्चन, प्रेम भक्ति भाव से शरणागत हम सब |
जयदेवी जयदेवी श्री महालक्ष्मी माते, प्रसन्न होकर व्रत दे हमे माते |

Solah Somvar vrat katha

सोलह सोमवार व्रत कथा


एक समय भगवान शंकरजी जगज्जननी माता पार्वतीजी के साथ मृत्युलोक में भ्रमण करने की इच्छा से आये | भ्रमण करते-करते वे एक अत्यंत ही रमणीक, राजा विदर्भ की, देशांतर्गत अमरावती नाम की नगरी में पहुंचे जो कि सम्पूर्ण सुखों से परिपूर्ण देवराज इन्द्र की अमरावती के समान थी | उसमे वहां के राजा के द्वारा बनवाया हुआ अत्यंत सुन्दर शिवालय था | इसमे शिवजी पार्वतीजी के साथ निवास करने लगे | एक दिन पार्वतीजी शिवजी को अपने ऊपर प्रसन्न जान कुछ मनोविनोद करने की इच्छा से बोली- हे नाथ ! अज्ज हम और आप दोनों चौसर खेलें | महादेवजी अपनी प्राण वल्लभा की बात स्वीकार कर चौसर खेलने लगे | उस समय उस मंदिर का पुजारी शिवजी की पूजा करने आया तब पार्वतीजी बोली- हे विप्र ! बताओ इस बाजी में हममे से कौन जीतेगा | ब्राह्मिण बिना विचारे ही बोल उठा कि महादेवजी ही जीतेंगे |

जब बाजी ख़त्म हुई तो पार्वतीजी जीत गयीं | तत्पश्चात वे क्रोधित हो ब्राह्मिण को झूठ बोलने के अपराध में शाप देने लगी | महादेवजी ने उन्हें बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राह्मिण को कोढ़ी होने का शाप दे ही दिया | कुछ दिन बाद ब्राह्मिण के सारे शरीर में कोढ़ हो गयी | अब तो ब्राह्मिण बहुत दुखी हुआ | इस प्रकार उसे काफी दिन बीत गए | एक दिन देवलोक की कुछ अप्सराएँ महादेवजी की पूजा करने उसी मंदिर में आयीं | पुजारी को कोढ़ से दुखी देख वे उससे इसका कारण पुछने लगीं तब ब्राह्मिण ने आद्योपांत सब कथा कह सुनाई | अप्सराएँ बोली- हे विप्र ! तुम दुखी मत होओं, शिवजी तुम्हारे सब दुखों को दूर करेंगे | तुम व्रतों में जो सर्वोपरि सोलह सोमवारों का व्रत है उसे भक्ति सहित करो | तब पुजारी अपने दोनों हाथ जोड़ बड़े विनम्र वचनों से अप्सराओं से उन सोलह सोमवारों के व्रत की विधि पूछने लगा |

अप्सराएँ बोली- हे विप्र ! जिस दिन सोमवार हो उस दिन बड़े भक्ति-भाव से व्रत करें | स्वच्छ वस्त्र पहने और आधा सेर गेहूं का स्वच्छ आटा लेकर उसके तीन भाग बनावे और घी, गुड, धुप, दीप, नेवैध्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ जोड़ा, चन्दन, अक्षत और पुष्प आदि से प्रदोष काल में महादेवजी का विधि-विधान से पूजन करें | पश्चात उन भागों में से एक शिवजी को अर्पण करें शेष उन दो भागों के शिव का प्रसाद जान उपस्थित जनों में बाँट दें फिर स्वयं प्रसाद ग्रहण करें | इस प्रकार सोलह सोमवारों का व्रत करें फिर सत्रहवें सोमवार के दिन पाव भर गेहूं का चूर्ण लें उसकी बाटी बनायें उसमें घी और गुड मिलाकर चूरन तैयार करें फिर शिवजी का भोग लगाकर भक्तों में बाँट कर उसको सकुटुम्ब प्रसाद पावें | ऐसा करने से शिवजी की कृपा से सारे मनोरथ पूर्ण होंगे | ऐसा कह अप्सराएँ स्वर्ग को चली गयीं |

ब्राह्मिण ने उनके बताये गए विधि अनुसार सोलह सोमवारों का व्रत किया और शिवजी की कृपा से वह कोढ़ मुक्त हो आनंद से रहने लगा | कुछ दिन बाद फिर शिव-पार्वती उस मंदिर में आयें | तब पार्वतीजी ने ब्राह्मिण को निरोग देख उससे इसका कारण पूछा | ब्राह्मिण ने सोलह सोमवारों के व्रत की कथा कह सुनाई | तब प्रवातिजी ने प्रसन्न हो उससे व्रतों को विधि पूछी, जिसके कारण उनके रूठे हुए पुत्र स्वामी कार्तिकेय माता के आज्ञाकारी हुए | एक दिन कार्तिकेय जी ने अपने विचारों को बदला हुआ जान पूछा- हे माता ! आपने ऐसा कौन सा उपाय किया है जिससे मेरा मन आपकी और आकर्षित हुआ | तब पार्वतीजी ने उन्हें सोलह सोमवारों के व्रत की कथा कह सुनाई | तब वे बोले- यह व्रत मई भी करूँगा क्योंकि मेरा मित्र विदेश को गया है और मेरी उससे मिलने की इच्छा है | जब उन्होंने व्रत को किया तो उन्हें भी प्रिय मित्र मिल गया | तब मित्र ने इस मिलने के भेद को उनसे पूछा वे बोले- हे मित्र ! मैंने सोलह सोमवारों का व्रत किया था जिसके प्रभाव से तुम मिले | अब ब्राह्मिण ने भी अपने विवाह की इच्छा से इस व्रत की विधि को पूछ यथा विधि व्रत किया | एक दिन व्रत के प्रभाव से किसी कार्य वश वह विदेश गया वहां राजा की लड़की का स्वयंवर था | राजा ने यह प्रतिज्ञा की कि जिस किसी के गले में स्वर्ण आभूषणों से अलंकृत राजकुमारी वरमाला डाल देगी उसी के साथ में इसका विवाह कर दूंगा | शिवजी कि कृपा से ब्राह्मिण स्वयंवर देखने राजसभा में एक और जा बैठा | नियत समय पर स्वर्ण आभूषणों से सुसज्जित राजकुमारी आई और ब्राह्मिण के गले में वर माला डाल दी | राजा ने प्रतिज्ञा अनुसार बड़ी धूम-धाम से अपनी प्रिय पुत्री का विवाह ब्राह्मिण के साथ कर दिया और उसे बहुत-सा धन दे संतुष्ट किया | ब्राह्मिण सुंदर राजकुमारी को पाकर सुखमय जीवन व्यतीत करने लगा | एक दिन राज कन्या ने पूछा - हे नाथ ! आपने ऐसा कौन-सा पुण्य कर्म किया जिससे मैंने सब राजकुमारों को छोड़कर आपका वरण किया |
ब्राह्मिण बोला- प्रिये ! मैंने अपने मित्र स्वामी कार्तिकेय द्वारा बताये गए सोलह सोमवारों का व्रत किया जिसके प्रभाव से मुझे तुम राजलक्ष्मी प्राप्त हुई हो | व्रत के प्रभाव को सुन वह बहुत आश्चर्यचकित हुई और पुत्र की कामना से व्रत करने लगी | शिवजी की कृपा से उसे सर्वगुण संपन्न सुंदर सुशील एक पुत्र हुआ | माता-पिता उस पुत्र को पाकर बहुत-ही प्रसन्न हुए और अनेक प्रकार से उसका लालन-पालन करने लगे | जब पुत्र बड़ा हुआ तो उसने अपनी माता से पूछा कि आपने ऐसा कौन सा श्रेष्ठ उपाय किया कि जिसके बल से मै आपके गर्भ से पैदा हुआ | राजकुमारी ने अपने पुत्र के वचन सुन सोलह सोमवारों कि व्रत कथा यथा विधि कह सुनाई | पुत्र ने ऐसे व्रत को जो सब मनोरथों को पूरा कर देने वाला है सुना तो राज्याधिकार पाने की उत्कंठा से व्रत करने लगा | तब एक देश के वृद्ध राजा ने कुछ दूतों को अपनी कन्या के योग्य वर ढूढने को भेजा | उन्होंने आकर उस ब्राह्मिण कुमार को जो सर्व गुण संपन्न था वरण किया और राजा ने अपनी पुत्री का विवाह उससे कर दिया |
राजा के स्वर्गलोक गमन पर यही ब्राह्मिण गद्दी पर बैठाया गया क्योकि राजा के कोई पुत्र नहीं था | राज्य के पाने पर भी ब्राह्मिण सोलह सोमवारों का व्रत करते ही रहा | जब सत्रहवां सोमवार आया तो उसने अपनी प्राण वल्लभा से पूजा सामग्री लेकर शिवालय में चलने को कहा | राजपुत्री ने उसकी आज्ञा पर कुछ ध्यान न दिया और सब सामग्री अपनी दासियों द्वारा भिजवा दी , आप नहीं गयी | जब राजा ने शिवपूजन किया तो आकाशवाणी हुई कि हे राजा ! तुम अपनी रानी को शीघ्र ही महल से निकल देना अन्यथा वह तुम्हारा सर्वनाश कर देगी | यह सुन मंत्री आदि सब बड़े दुखी हुए और बोले-जिस कन्या से इसको राज्य मिला है आज वही राजा उसको निकालना चाहता है | अंत में राजा ने उसे निकाल ही दिया | रानी दुखी ह्रदय से अपने भाग्य को कोसती हुई नगर से बाहर निकल गई | बिना पद ऋण, फटे वस्त्र पहिने, भूख से व्याकुल धीरे-२ चल कर एक नगर में गई | वहां एक बुढ़िया सूत काट कर बेचने जा रही थी | वह उसकी दुखी दशा देख कर बोली चल तू मेरे साथ सूत बिकवा दे मै वृद्धा हूँ | यह सुन रानी ने सिर पर से गठरी उतार अपने सिर पर रखली | उसी समय ऐसी आंधी आई कि उसका सब सूत आंधी में उड़ गया | बुढ़िया ने दुखी हो उसको अपने पास से हटा दिया | अब रानी एक तेली के घर गयी तो उसके सब तेल के घड़े उसी वक्त शिवजी के कोप से चटक गए | यह देख तेली ने भी अपने यहाँ से निकाल दिया | तब अत्यंत दुःख को पाती हुई वह एक नदी के किनारे पर गई तो उसका सब पानी से सूख गया | तत्पश्चात वह एक वन में एक तालाब की सीढ़ी उतर पानी पीने को हुई कि उसको जल नीला एवं असंख्य कीड़ों से युक्त गन्दा हो गया | प्यास से व्याकुल रानी ने उसी जल को पीकर एक पेड़ कि सुन्दर शीतल छाया में विश्राम करना चाहा, पेड़ के नीचे जाते ही उसके सब पत्ते सूखकर जमीन पर गिर पड़े | उस वन के ग्वाला जो गाय चराते तथा पानी पिलाते थे वन की ऐसी दशा देख कर वह बड़े दुखी हुए और अपने गुसाई जी से जो कि वन में मंदिर के पुजारी थे सभी कथा कह सुनाई और रानी को पकड़ कर उनके पास ले आये | उसके मुख की कांति तथा शरीर की कुम्हलाया हुआ देख वह जान गए कि यह कोई राजपुत्री है और विधिगति की मारी है | ऐसा सोच उसने कहा- हे बेटी ! तू मेरी पुत्री के समान है अतः तू मेरे आश्रम को चल | वह उनके ऐसे वचन सुन ह्रदय में धैर्य धारण कर आश्रम में रहने लगी | जब रानी भोजन बनाती तथा पानी लाती थी तो उसमे कीड़े पड़ जाते थे अब तो गुसाई जी बड़े दुखी हुए और उससे बोले- बेटी! बताओ ऊपर किस देवता का प्रकोप है, जिससे तुम्हारी यह दशा है | गुसाई जी की बात सुन रानी ने आद्योपांत सब कथा कह सुनाई तब गुसाई जी भूतेश्वर भगवान् शिवजी की अनेक प्रकार से स्तुति करने लगे और रानी से बोले-पुत्री ! तुम अब सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली लगातार सोलह सोमवारों का व्रत करो और उसके प्रभाव से तुम अपने को कष्ट से मुक्त समझाना | रानी ने गुसाई जी के कथनानुसार सोलह सोमवारों का व्रत यथा विधि समाप्त किया और सत्रहवें सोमवारों के पूजन से राजा के ह्रदय में ये विचार उत्पन्न हुए कि रानी को गए हुए काफी दिन हो गए हैं न जाने वह कहाँ भटक रही होगी | यह सोचकर राजा ने उसे ढूढने को चारों तरफ दूत भेजे | दूत ढूंढते-२ गुसाई जी के आश्रम में गए वहां रानी को देख उनसे मांगने लगे | परन्तु गुसाई जी ने उनसे मना कर दिया वे वापस लौट गए और राजा को सब समाचार कह सुनाया | रानी का पता पा राजा उनके आश्रम में आया और बोला- महाराज | यह मेरी पत्नी है मैंने शिवजी के कोप से इसको त्याग दिया था, अब शिवजी की इसके ऊपर कृपा है अतः मै इसे लेने आया हूँ | आप इसे मेरे साथ चलने कि आज्ञा दें | गुसाई जी ने राजा के वचनों का विश्वास कर रानी को जाने की आज्ञा दे दी | गुसाई जी की आज्ञा पाकर बड़े प्रसन्न मन से वह राजमहल में आई | नगर में अनेक प्रकार के आनंद मंगल होने लगे तथा नगर तोरण वन्दनवारों से सजाया गया | घर-२ में मंगलाचार होने लगे, पंडित लोग वेद मन्त्र पढ़ कर राजा रानी का आह्वान करने लगे | इस प्रकार रानी ने अपनी राजधानी में प्रवेश किया, राजा ने ब्राह्मणों तथा याचकों को बहुत धन दिया | नगर में जगह-जगह पर सदाव्रत खुलवाएं जिस से भूखों को अन्न मिले | इस प्रकार शिवजी की कृपा से राजा राजमहल में रानी के साथ अनेक सुखों को भोग आनंद से जीवन बिताने लगा | अब तो राजा और रानी बड़े भक्ति भाव से प्रति वर्ष शिवजी के सोलह सोमवारों का यथा विधि व्रत करने लगे और अनेक सुख भोग अंत में शिव लोक का गमन किया इस प्रकार जो मनुष्य मन, क्रम, वचन से भक्ति सहित सोलह सोमवारों का व्रत करेंगे वह अनेक सुख भोगकर अंत में शिवलोक को प्राप्त करेंगे | यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है |
|| बोलो श्री शंकर भगवान की जय ||

अन्नपुर्णा देवी व्रत कथा



अन्नपुर्णा देवी की प्रार्थना

सिद्ध सदन सुन्दर बदन, गणनायक महाराज
दास आपका हूँ सदा कीजै जन के काज ||
जय शिव शंकर गंगाधर, जय जय उमा भवानी
सिया राम कीजै कृपा हरी राधा कल्याणी ||
जय सरस्वती जय लक्ष्मी, जय जय गुरु दयाल
देव विप्र और साधू जय भारत देश विशाल ||
चरण कमल गुरुजनों के, नमन करूँ मई शीश
मो घर सुख संपत्ति भरो , दे कर शुभ आशीष ||

दोहा
हाजिर है सब जगह पर, प्रेम रूप अवतार
करें न देरी एक पल, हो यदि सत्य विचार ||
प्रेमी के बस में बंधे, मांगे सोई देत
बात न टाले भक्त की , परखे सच्चा हेत ||
श्रृद्धा वाले को ज्ञान मिले , तत्पर इन्द्रीवश वाला हो
पावे जो ज्ञान शीघ्र ही सब सुख शांति स्नेह निराला हो ||
वन में दावानल लगी, चन्दन वृक्ष जरात
वृक्ष कहे हंसा सुनो , क्यों न पंख खोल उड़ जात ||
प्रारब्ध पहले रखा पीछे रचा शरीर
तुलसी माया मोह फंस, प्राणी फिरत अधीर ||
तुलसी मीठे वचन से , सुख उपजत चहुँ ओर
वशीकरण यह मन्त्र है, तज दे वचन कठोर ||
मान मोह आसक्ति तजि, बनो अद्ध्यात्म अकार
द्वंद मूल सुख दुःख रहित पावन अवयव धाम ||
तामे तीन नरक के द्वार हैं, काम क्रोध अरु मद लोभ
उन्हें त्याग किन्हें मिळत, आत्म सुख बिन क्षोभ ||
सब धर्मों को त्याग कर माँ शरण गति धार
सब पाँपों से मै तेरा करूँ शीघ्र उद्धार ||
यह गीता का ज्ञान है, सब शास्त्रों का सार
भक्ति सहित जो नर पढ़ें लहे आत्म उद्धार ||
गीता के सम ज्ञान नहीं, मन्त्र न प्रेम रे आन
शरणागति सम सुख नहीं, देव न कृष्ण देव ||
अमृत पी संतोष का, हरी से ध्यान लगायें
सत्य राख संकल्प मन विजय मिलें जहा जाय ||
मन चाही सब कामना, आप ही पूरण होय
निश्चय रखो भगवान् पर, जल में दे दुःख खोय ||

व्रत कथा

काशी निवासी धनजय की पत्नी का नाम सुलक्षणा था | उसे अन्यान्य सब सांसारिक सुख प्राप्त थे, परन्तु निर्धनता ही एक दुःख का कारण थी | यह दुःख उसको हर समय सताता रहता था | एक दिन सुलक्षणा अपने पति से बोली- स्वामी, आप कुछ उद्यम करो तो काम बने, इसप्रकार कब तक काम चलेगा | सुलक्षणा की बात धनंजय के मन में बैठ गयी और वह उसी दिन विश्वनाथ शंकर को खुश करने को पूजा में बैठ गया | कहने लगा - हे देवादि देव विश्वेश्वर मुझे पूजा-पाठ कुछ आता नहीं, केवल तुम्हारे भरोसे बैठा हूँ, इतनी कृपा कर, दो- तीन दिन तक भूखा- प्यासा बैठा रहा | यह देख कर भगवान् शंकर ने उसके कान में अन्नपूर्ण| अन्नपुर्णा || अन्नपुर्णा ||| इसप्रकार तीन बार कहा | यह कौन, क्या कह गया ? इस सोच में धनंजय पड़ गया और मंदिर से आते हुए ब्रह्मिनों को देखकर पूछने लगा- पंडितजी, यह अन्नपूर्ण कौन है? वे बोले- तू अन्न छोड़ बैठा है सो हर समय अन्न की ही बात सूझती है | जा घर जा, अन्न गृहं कर | धनंजय अपने घर गया और पत्नी से सारा वृतांत कहा | वह बोली - हे नाथ ! चिंता मत करो | स्वयं शंकरजी ने यह मन्त्र दिया है, वह खुद ही इसका खुलासा करेंगे | आप फिर जाकर उनकी आराधना करो | धनंजय फिर जैसा का तैसा पूजा में बैठ गया | रात्रि में शंकरजी ने आज्ञा दी की तू पूर्व दिशा में जा , वहां इसका योग लगेगा | और तू सुखी होगा | महादेव बाबा का कहना मान वह पूर्व दिशा को चल दिया | वह अन्नपुर्णा-अन्नपुर्णा कहता जाता और रस्ते में फल खता जाता, झरनों का पानी पीता जाता | इसतरह कितने ही दिन चलता गया | वहां उसे चाँदी-सी चमकती वन की शोभा देखने में आई | सुन्दर सरोवर देखने में आया और उसके किनारे कितनी ही अप्सराएं झुण्ड बनायें बैठी है | एक कथा कहती थी और सब माता अन्नपुर्णा-अन्नपुर्णा इसप्रकार बार-बार कहती थी कि आज अगहन मास कि उजियाली रात्रि थी | आज से ही इस व्रत का आरम्भ था | जिस शब्द कि खोज को मै घर से निकला था वह शब्द आज मुझे सुनने को मिला है |

धनंजय उनके पास जाकर पूछता है - हे देवियों ! आप ये क्या करती हो? वे बोलीं - हम माता अन्नपूर्णा का व्रत करती हैं | व्रत करने से क्या होता है? यह किसी ने किया भी है इसको कब किया जाये? यह समझा कर मुझसे कहो | वे कहने लगी - इस व्रत को सभी कर सकते है | २१ दिन तक के लिए २१ गांठ का सूत्र लेना | २१ दिन न बने तो १ दिन का उपवास करना | यह भी न बने तो केवल कथा सुनकर माता का प्रसाद लेना | निराहार रहकर कथा करना | कथा सुनने वाला कोई न मिले तो पीपल के पत्ते को दस सुपारी, गुवारपाठा के वृक्ष को सामने रख कर, दीपक को साक्षी रख कर, सूर्य, गाय, तुलसी या महादेव की कथा सुनना | बिना कथा सुनाये मुख में दाना न डालना | यदि भूल में कुछ पड़ जाये तो एक दिवस फिर उपवास करना और व्रत में क्रोध न करे, झूठ न बोले | धनंजय बोला - इस व्रत के करने से क्या होगा ? वे कहने लगी - इसके करने से अंधों को नेत्र मिले, लूलों को पाँव मिले, निर्धन के घर धन आवे, बाँझ को संतान मिले, मूर्ख को विध्या आवे, जो जिस कामना से व्रत करें माता उनको इच्छा पूरी करती है | धनंजय बोला - बहिनों ! मेरे पास भी धन नहीं, विद्द्या नहीं, कुछ भी तो नहीं है | मैं दुखिया और दरिद्र ब्रह्मिण हूँ | मुझे उस व्रत का सुख डौगी | हाँ भाइ तेरा कल्याण हो, हम तुझे देंगीं | ले व्रत का मंगलसूत्र ले | धनंजय ने व्रत किया और पूरा हुआ | तभी सरोवर में से २१ खंड की स्वर्ण सीढ़ी हीरा - मोती जड़ी प्रकट हुई | धनंजय अन्नपूर्णा - अन्नपूर्णा कहता जाता था | इस प्रकार कितनी ही सीढियां उतर आया तो क्या देखता है की करोड़ों सूर्यों के सामान प्रकाशमान अन्नपूर्णाजी का मंदिर है | उसके स्वर्ण सिंहासन पर अन्नपूर्णा विराजमान हैं | सामने भिक्षा हेतु शंकर भगवान खड़े है | देवांगनाएँ चंवर डुलाती है | कितनी ही हथियार बंधे पहरा देती हैं | धनंजय दौड़ कर माता के चरणों पर गिर पड़ा | माता उसके मन का क्लेश जान गई | धनंजय कहने लगा - माता ! आप तो अंतर्यामी हो, आपको अपनी दशा क्या बताऊँ | माता बोली - तुने मेरा व्रत किया है जा तेरा संसार सत्कार करेगा | माता ने धनंजय की जिव्हा पर बीज मंत्र लिख दिया | अब तो उसके रोम रोम में विध्या प्रविष्ठ हो गई | इतने में क्या देखता है की काशी विश्वनाथ के मंदिर ने खड़ा हुआ है | माता का वरदान ले कर धनंजय घर आया और सुलक्षणा से सब बात कही | माताजी की कृपा से अटूट संपत्ति उमड़ने लगी | छोटा घर बहुत बड़ा गिना जाने लगा | जैसे शहद के छत्ते में मक्खियाँ जमा हो जाती है उसी प्रकार अनेक सगे-संबधी आकर उसकी बड़ाई करने लगे | इतना धन, इतना बड़ा सुन्दर घर संतान नहीं तो इस कमी का कौन भोग करेगा | सुलक्षणा के संतान नहीं है, इसलिए तुम दूसरा विवाह करो | अनिच्छा होते हुवे भी धनंजय को दूसरा विवाह करना पड़ा | सटी सुलक्षणा को सौत का दुःख उठाना पड़ा | इस तरह दिन बीतते गए फिर अग्घन मास आया और नए बंधन से बंधे पति से सुलक्षणा ने पति से कहलवाया की व्रत व्रत के प्रभाव से हम सुखी हुए हैं, इस कारण यह व्रत हमें छोड़ना नहीं चाहिए | यह माता जी का प्रताप है, हम इतने सम्पन्न व् सुखी हुए है | सुलक्षणा की बात सुन कर धनंजय उसके यहाँ आया और व्रत में बैठ गया | नै वधु को इस बात की खबर नहीं थी | वह धनंजय के आने की राह देख रही थी | दिन बीतते गए और व्रत पूरा होने में तीन दिवस रहे की नै पत्नी को खबर मिली और उसके मन में इर्ष्या की ज्वाला दहक रही थी | सुलक्षणा के घर पहुची और झगडा करके वह धनंजय को अपने साथ ले आई और नए घर में धनंजय को थोड़ी देर के लिए निद्रा ने आ घेरा |
उसी समय नयी पत्नी ने उसके व्रत का सूत्र तोड़कर अग्नि में फेंक दिया | अब तो माताजी बड़ी क्रोधित हुई | घर में अचानक आग लग गयी, सब कुछ जलकर राख हो गया | सुलक्षणा जान गयी और अपने पति को वापस अपने घर ले आई | नयी पत्नी रूठकर अपने पिता के घर जा बैठी | संसार में दो जीव थे उनमे से अब एक ही रह गया | पति को परमेश्वर मानने वाली सुलक्षणा बोली- हे नाथ ! घबराना नहीं | माताजी की कला अलौकिक है पुत्र कुपुत्र हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती, आप माता में श्रृद्धा रखें और फिर आराधना शुरू करें | वे अवश्य हमारा कल्याण करेंगी | धनंजय फिर माता का व्रत करने लगा | फिर वही सरोवर सीढ़ी प्रकट हुई उसमे अन्नपूर्ण माँ कह कर उतर गया | वहां माता के चरणों में रुदन करने लगा | माता प्रसन्न होकर बोली - यह मेरी स्वर्ण की मूर्ति ले और इसका पूजन करना तू फिर सुखी हो जायेगा | जाओ तुमको मेरा आशीर्वाद है तेरी पत्नी सुलक्षणा ने श्रृद्धा से मेरा व्रत किया है उसको मैंने पुत्र दिया | धनंजय ने आँखें खोली और खुद को काशी विश्वनाथ मंदिर में खड़ा पाया, वहां से फिर उसी प्रकार घर आया | इधर सुलक्षणा के दिन चढ़े और महिना पूरे होते ही पुत्र का जन्म हुआ | ग्राम में आश्चर्य की लहर दौड़ गयी | मान्यता आने लगी | इसीप्रकार उस ग्राम के निःसंतान सेठ के पुत्र होने से उसने माता अन्नपूर्णा का सुंदर मंदिर बनवाया | जिसमे धूमधाम से माताजी पधारी | यज्ञ किया और धनंजय को मंदिर का आचार्य पद दिया और जीविका के लिए मंदिर की दक्षिणा और रहने के लिए बड़ा सुंदर भवन बनवा दिया | धनंजय स्त्री-पुत्र के साथ वहां रहने लगा | माताजी की चढौत्री से भरपूर आमदनी होने लगी | इधर नयी वधु के पिता के घर डाका पड़ा, सब कुछ लूट गया, वे भिक्षा मांग कर पेट भरने लगे | सुलक्षणा ने जब यह सब सुना तो उन्हें बुला भेजा | अलग घर में राख दिया और उनके अन्न-वस्त्र का प्रबंध कर दिया | धनंजय, सुलक्षणा और उसका पुत्र माताजी की कृपा से आनंद करने लगे | माताजी ने जैसे इनके भंडार भरे वैसे सबके भरे |

मन्त्र
अन्नपूर्णा सदा पूर्णा शंकर प्राणवल्लभे
ज्ञान वैराग्य सिद्ध्यारार्थम भिक्षम देहि च पार्वती ||
माता में पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः
बान्धवः शिवाभाक्ताश्च स्वदेशो भुव्त्रयम ||

माँ वैभव लक्ष्मी व्रत

वैभव लक्ष्मी व्रत शुक्रवार को किया जाता है | इस व्रत को प्रारम्भ करने के बाद नियमित रुप से 11 या 21 शुक्रवारों तक करना चाहिए | प्रात: जल्दी उठकर पूरे घर की सफाई करनी चाहिए | जिस घर में साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखा जाता है, उस घर-स्थान में देवी लक्ष्मी निवास नहीं करती है| व्रत अपने घर में करें और यदि किसी शुक्रवार घर पर नहीं है, सूतक है या व्रत करने वाली स्त्री रजस्वला है, तो उस शुक्रवार को छोड़कर अगले शुक्रवार को व्रत करें व् कथा पढ़ें | व्रत के दिन हो सके तो पूर्ण उपवास रखें तथा संध्या समय पूजा व् कथा के पश्चात भोजन ग्रहण करें | पूर्ण उपवास न रख सकें तो फलाहार, १ समय भोजन या दोनों समय भोजन ले सकते हैं |
पूजा में सोना, चाँदी या रुपया रखें | धूप, दीप, गंध और श्वेत फूलों से माता की पूजा करनी चाहिए व्रत के उद्यापन पर खीर या कुछ भी मीठा प्रसाद तथा कम से कम ७ या ११,२१,५१ आदि संख्या में स्त्रियों या बालिकाओं को यथायोग्य दान-दक्षिणा दें |

श्री महालक्ष्मी यंत्र

हे लक्ष्मी माँ, सबकी मनोकामना पूरी करना और सबका कल्याण करना |

धनलक्ष्मी माँ
गजलक्ष्मी माँ
अधिलक्ष्मी माँ
विजयालक्ष्मी माँ
ऐश्वर्यलक्ष्मी माँ
वीरलक्ष्मी माँ
धान्यलक्ष्मी माँ
संतानलक्ष्मी माँ

पूजन विधि :

सर्वप्रथम पूजन करने वाले स्त्री या पुरुष पूरी श्रद्धा से श्री यंत्र को और उसके बाद माता के अष्ट रूपों को प्रणाम करें |
संध्या समय पूर्व दिशा में मुंह रख सके, इसी तरह आसन पर बैठ जाओ ।सामने पाटा रख कर उसके ऊपर रुमाल रखो । रुमाल पर चावल का छोटा सा ढेर करो । उस ढेर पर पानी से भरा तांबे का कलश रखकर, कलश पर एक कटोरी रखो । उस कटोरी में एक सोने का गहना रखो । सोने का न हो तो चांदी का भी चलेगा । चादी का न हो तो नकद रुपया भी चलेगा । बाद में घी का दीपक जला कर धूपसली सुलगा कर रखो ।

मां लक्ष्मीजी के बहुत स्वरूप है । और मां लक्ष्मीजी को 'श्रीयंत्र' अति प्रिय है । अतः 'वैभवलक्ष्मी' मे पूजन विधि करते वक्त प्रथम 'श्रीयंत्र' और लक्ष्मीजी के विविध स्वरूपो का सच्चे दिल से दर्शन करो । उसके बाद लक्ष्मी स्तवन का पाठ करो । बाद मे कटोरी में रखे हुए गहने या रुपये को हल्दी-कुमकुम और चावल चढ़ा कर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ । शाम को कोई मीठी चीज बनाकर उसका प्रसाद रखो । न हो सके तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है ।
आरती करके ग्यारह बार सच्चे ह्रदय से 'जय मॉं लक्ष्मी' बोले । बाद मे ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का दृढ संकल्प मॉं के सामने करो और आपकी जो मनोकामना हो वह पूरी करने को मॉं लक्ष्मीजी को बिनती करो । फिर मॉं का प्रसाद बॉंट दो । और थोड़ा प्रसाद अपने लिये रखो । अगर आप में शक्ति हो तो सारा दिन उपवास रखो और सिर्फ प्रसाद खा कर शुक्रवार करो । न शक्ति हो तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय खाना खा लो । अगर थोडी शक्ति भी न हो तो दो बार भोजन कर सकते हो । बाद मे कटोरी में रखा गहना या रुपया ले लो । कलश का पानी तुलसी क्यारे में डाल दो । और चावल पक्षियों को डाल दो । इसी तरह शास्त्रीय विधि अनुसार व्रत करने से उसका फल अवश्य मिलता है ।
गहने की पूजा करते समय लक्ष्मी स्तवन का पाठ करें |

लक्ष्मी स्तवन श्‍लोक

या रक्ताम्बुजवासिनी विलसिनी चंडांशु तेजस्विनी ॥

या रक्ता रुधिराम्बरा हरिसखी या श्री मनोल्हादिनी ॥

या रत्‍नाकर मन्थनाप्रगंटिता विष्णोस्वया गेहिनी ॥

सा मां पातु मनोरमा भगवती लक्ष्मीश्‍च पद्मावती ॥



"जो लाल कमल में रहती है, जो अपूर्व कांतिवाली है, जो असह्य तेजवाली है, जो पूर्ण रूप से लाल है, जिसने रक्‍तरूप वस्त्र पहने है, जो भगवान विष्णु को अति प्रिय है, जो लक्ष्मी मन को आनंद देती है, जो समुद्रमंथन से प्रकत हुई है, जो विष्णु भगवान की पत्‍नी है, जो कमल से जन्मी है और जो अतिशय पूज्य है, वैसी हे लक्ष्मी देवी! आप मेरी रक्षा करें"
व्रत कथा :

एक बड़ा नगर था । इस नगर कई लोग रहते थे । पुराने समय के लोग साथ-साथ रहते थे और एक दूसरे के काम आते थे । पर आजकल बहुत -से लोग अपने अपने काम में रत रहते है । घर के सदस्यों को भी एक-दूसरे की परवाह नहीं होती । भजन-कीर्तन, भक्ति-भाव, परोपकार जैसे संस्कार कम हो गये है ।

कहावत है कि 'हजारों निराशा में एक अमर आशा छिपी हुई है । इसी तरह इतनी सारी बुराइयों के बावजूद नगर में कुछ अच्छे लोग भी रहते थे ।

ऐसे अच्छे लोगों में शीला और उनके पति की गृहस्थी मानी जाती थी । शीला धार्मिक प्रकृति और संतोषी थी । उनका पति भी विवेकी और सुशील था ।

शीला और उनका पति इमानदारी से जीते थे । वे किसी की बुराई करते न थे और प्रभु भजन में अच्छी तरह समय व्यतीत कर रहे थे । उनकी गृहस्थी आदर्श गृहस्थी थी और शहर के लोक उनकी गृहस्थी की सराहना करते थे ।

शीला की गृहस्थी इसी तरह खुशी-खुशी चल रही थी । पर कहा जाता है कि 'कर्म की गति अकल है', विधाता के लिखे लेख कोई नहीं समझ सकता है । इन्सान का नसीब पल भर मे राजा को रंक बना देता है और रंक को राजा । शीला के पति के अगले जन्म के कर्म भोगने के बाकी रह गये होंगे कि वह बुरे लोगों से दोस्ती कर बैठा । वह जल्द से जल्द 'करोडपति' होने के स्वप्न देखने लगा । इसलिये वह गलत रास्ते पर चढ़ गया और अपना सारा धन लूटा बैठा । याने रास्ते पर भटकते भिखारी जैसी उसकी हालत हो गई थी ।

शहर मे शराब, जुआ, चरस-गांजा वगैरह बुराइयाँ फैली हुई थी । उसमें शीला का पति भी फॅंस गया । दोस्तों के साथ उसे भी शराब की आदत हो गई । जल्द से जल्द पैसे वाला बनने की लालच मे दोस्तों के साथ जुआ भी खेलने लगा । इस तरह बचाई हुई धनराशि, पत्‍नी के गहने, सब कुछ रेस-जुए में गंवा दिया था ।

इसी तरह एक वक्त ऐसा भी था कि वह सुशील पत्‍नी शीला को साथ मजे में रहता था और प्रभु भजन में सुख-शांति से वक्त व्यतीत करता था । उसके बजाय घर मे दरिद्रता और भूखमरी फैल गई । सुख से खाने की बजाय दो वक्त भोजन के लाले पड गये । और शीला को पति से अपशब्द भी सुनने पड़ जाते थे ।

शीला सुशील और संस्कारी स्त्री थी । उसको पति के बर्ताव से बहुत दुःख हुआ । किन्तु वह भगवान पर भरोसा करके बडा दिल रख कर दुःख सहने लगी । दुःख के बाद सुख आयेगा ही, ऐसी श्रद्धा के साथ शीला प्रभु भक्ति मे लीन रहने लगी ।

इस तरह शीला असह्य दुःख सहते-सहते प्रभुभक्ति में वक्त बिताने लगी । अचानक एक दिन दोपहर को उनके द्वार पर किसी ने दस्तक दी ।
शीला सोच में पड़ गई कि मुझ जैसे गरीब के घर इस वक्त कौन आया होगा?

फिर भी द्वार पर आये हुए अतिथि का आदर करना चाहिये, ऐसे संस्कार वाली शीला ने खड़े होकर द्वार खोला ।

देखा तो एक मांजी खड़ी थी । वे बड़ी उम्र की लगती थी । किन्तु उनके चेहरे पर अलौकिक तेज निखर रहा था । उनकी ऑंखों में से मानो अमृत बह रहा था । उनका भव्य चेहरा करुणा और प्यार से छलकता था । उनको देखते ही शीला के मन मे अपार शांति छा गई । वैसे शीला इस मांजी को पहचानती न थी । फिर भी उनको देखकर शीला के रोम-रोम आनंद छा गया । शीला मांजी को आदर के साथ घर में ले आयी । घर में बिठाने के लिए कुछ भी नही था । अतः शीला ने सकुचा कर एक फटी हुई चद्दर पर उनको बिठाया ।

मांजी ने कहा - 'क्यों शीला! मुझे पहचाना नहीं?

शीला ने सकुचा कर कहा - 'मां! आपको देखते ही बहुत खुशी हो रही है । बहुत शांति हो रही है । ऐसा लगता है कि मैं बहुत दिनो से जिसे ढूंढ रही थी वे आप ही है । पर में आपको पहचान नही सकती ।'

मांजी ने हॅंसकर कहा - 'क्यों? भूल गई? हर शुक्रवार को लक्ष्मीजी के मंदिर मे भजन-कीर्तन होते है, तब मै भी वहा आती हू । वहॉं हर शुक्रवार को हम मिलते है ।

पति गलत रास्ते पर चढ़ गया, तब से शीला बहुत दुःखी हो गई थी और दुःख की मारी वह लक्ष्मीजी के मंदिर में भी नही जाती थी । बाहर के लोगों के साथ नजर मिलाते भी उसे शर्म लगती थी । उसने याददाशत पर जोर दिया पर यह मांजी याद नही आ रहे थे ।

तभी माजी ने कहा, 'तू लक्ष्मीजी के मंदिर में कितने मधुर भजन गाती थी! अभी-अभी तू दिखाई नहीं देती थी, इसलिये मुझे हुआ कि तु क्यों नही आती है? कहीं बीमार तो नहीं हो गई है न? ऐसा सोच कर मैं तुझे मिलने चली आई हूँ ।

मांजी के अतिप्रेम भरे शब्दों से शीला का ह्रदय पिघल गया । उसकी ऑंखों में आसू आ गये । मांजी के सामने वह बिलख-बिलख कर रोने लगी । यह देख कर मांजी शीला के नजदीक सरके और प्यार भरा हाथ फेर कर सांत्वना देने लगे ।

मांजी ने कहा - 'बेटी! सुख और दुःख तो धूप और छांव जैसे होते है । सुख के पीछे दुःख आता है, तो दुःख के पीछे सुख भी आता है । धैर्य रखो बेटी! और तुझे क्या परेशानी है? तेरे दुःख की बात मुझे सुना । तेरा मन भी हलका हो जायेगा और तेरे दुःख का कोई उपाय भी मिल जायेगा ।'

मांजी की बात सुनकर शीला के मन को शांति मिली । उसने मांजी को कहा, मां! मेरी गृहस्थी में भरपूर सुख और खुशियॉं थी । मेरे पति भी सुशील थे । भगवान की कृपा से पैसे की बात मे भी हमे संतोष था । हम शांति से गृहस्थी चलाते ईश्वर-भक्ति में अपना वक्त व्यतीत करते थे । यकायक हमारा भाग्य हमसे रूठ गया । मेरे पति को बुरी दोस्ती हो गई । बुरी दोस्ती की वजह से वे शराब, जुआ, चरस-गांजा वगैरह बुरी आदतों के शिकार हो गये और उन्होने सब कुछ गॅंवा दिया ।

यह सुनकर मांजी ने कहा - 'कर्म की गति न्यारी होती है।' हर इन्सान को अपने कर्म भुगतने ही पड़ते है । इसलिये तू चिंता मत कर । अब तू कर्म भुगत चुकी है । अब तुम्हारे सुख के दिन अवश्य आयेंगे । तू तो मां लक्ष्मीजी की भक्त हे । मां लक्ष्मीजी तो प्रेम और करुणा के अवतार है । वे अपने भक्तों पर हमेशा ममता रखती है । इसलिये तू धैर्य रख के मां लक्ष्मीजी का व्रत कर । इससे सब कुछ ठीक हो जायेगा ।

'मां लक्ष्मीजी का व्रत' करने की बात सुन कर शीला के चेहरे पर चमक आ गई । उसने पूछा, 'मां! लक्ष्मीजी का व्रत कैसे किया जाता है, वह मुझे समझाइये । मै यह व्रत अवश्य करूंगी ।'

मांजी ने कहा, 'बेटी! मां लक्ष्मीजी का व्रत बहुत सरल है । उसे 'वरदलक्ष्मी व्रत' या 'वैभवलक्ष्मी व्रत' कहा जाता है । यह व्रत करने वाले की सब मनोकामना पूर्ण होती है । वह सुख-संपत्ति और यश प्राप्त करता है ।' ऐसा कह कर मांजी 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की विधि कहने लगी ।

'बेटी! वैभवलक्ष्मी व्रत वैसे तो सीधा सादा व्रत है । किन्तु कई यह व्रत गलत तरीके से करते है । अतः उसका फल नही मिलता । कई लोग कहते है कि सोने के गहने की हलदी-कुमकुम से पूजा करो । बस! व्रत हो गया । पर ऐसा नही है । कोई भी व्रत शास्त्रीय विधिपूर्वक करना चाहिये । तभी उसका फल मिलता है । सिर्फ सोने के गहने की पूजा करने से फल मिल जाता हो तो सभी आज लखपति बन गये होते । सच्ची बात यह है कि सोने के गहनो का विधि से पूजन करना चाहिये । व्रत की उद्यापन विधि भी शास्त्रीय विधि मुताबिक करनी चाहिये । तभी यह 'वैभवलक्ष्मी व्रत' फल देता है ।

यह व्रत शुक्रवार को करना चाहिये । सुबह में स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनो और सारा दिन मन मे 'जय मां लक्ष्मी', 'जय मां लक्ष्मी' का रटन करते रहो । किसी की चुगली नही करनी चाहिये । संध्या समय पूर्व दिशा में मुंह रख सके, इसी तरह आसन पर बैठ जाओ ।

सामने पाटा रख कर उसके ऊपर रुमाल रखो । रुमाल पर चावल का छोटा सा ढेर करो । उस ढेर पर पानी से भरा तांबे का कलश रखकर, कलश पर एक कटोरी रखो । उस कटोरी में एक सोने का गहना रखो । सोने का न हो तो चांदी का भी चलेगा । चादी का न हो तो नकद रुपया भी चलेगा । बाद में घी का दीपक जला कर धूपसली सुलगा कर रखो ।

मां लक्ष्मीजी के बहुत स्वरूप है । और मां लक्ष्मीजी को 'श्रीयंत्र' अति प्रिय है । अतः 'वैभवलक्ष्मी' मे पूजन विधि करते वक्त सौ प्रथम 'श्रीयंत्र' और लक्ष्मीजी के विविध स्वरूपो का सच्चे दिल से दर्शन करो । उसके बाद लक्ष्मी स्तवन का पाठ करो । बाद मे कटोरी में रखे हुए गहने या रुपये को हल्दी-कुमकुम और चावल चढ़ा कर पूजा करो और लाल रंग का फूल चढ़ाओ । शाम को कोई मीठी चीज बनाकर उसका प्रसाद रखो । न हो सके तो शक्कर या गुड़ भी चल सकता है । फिर आरती करके ग्यारह बार सच्चे ह्रदय से 'जय मॉं लक्ष्मी' बोले । बाद मे ग्यारह या इक्कीस शुक्रवार यह व्रत करने का दृढ संकल्प मॉं के सामने करो और आपकी जो मनोकामना हो वह पूरी करने को मॉं लक्ष्मीजी को बिनती करो । फिर मॉं का प्रसाद बॉंट दो । और थोड़ा प्रसाद अपने लिये रखो । अगर आप में शक्ति हो तो सारा दिन उपवास रखो और सिर्फ प्रसाद खा कर शुक्रवार करो । न शक्ति हो तो एक बार शाम को प्रसाद ग्रहण करते समय खाना खा लो । अगर थोडी शक्ति भी न हो तो दो बार भोजन कर सकते हो । बाद मे कटोरी में रखा गहना या रुपया ले लो । कलश का पानी तुलसी क्यारे में डाल दो । और चावल पक्षियों को डाल दो । इसी तरह शास्त्रीय विधि अनुसार व्रत करने से उसका फल अवश्य मिलता है । इस व्रत के प्रभाव से सब प्रकार की विपत्ति दूर हो कर आदमी मालामाल हो जाता है । संतान न हो उसे संतान प्राप्त होती है । सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रहता है । कुमारी लडकी को मनभावन पति मिलता है ।

शीला यह सुनकर आनंदित हो गई । फिर पुछा -'मॉं! आपने वैभवलक्ष्मी व्रत ' की जो शास्त्रीय विधि बताई है, वैसे मैं अवश्य करूंगी । किन्तु इसकी उद्यापन विधि किस तरह करनी चाहिये? यह भी कृपा करके सुनाइये ।'

मांजी ने कहा, 'ग्यारह या इक्कीस जो मन्नत मानी हो उतने शुक्रवार यह 'वैभवलक्ष्मी व्रत' पुरी श्रद्धा और भावना से करना चाहिये । व्रत के आखरी शुक्रवार को जो शास्त्रीय विधि अनुसार उद्यापन विधि करनी चाहिये वह मै तुझे बताती हूँ । आखरी शुक्रवार को खीर या नैवेध रखो । पूजन विधि हर शुक्रवार को करते है वैसेही करनी चाहिये । पूजन विधि के बाद श्रीफल फोडो और कमसे कम सात कुंवारी या सौभाग्यशाली स्त्रियों को कुमकुम का तिलक करके उपहार दो और सब को खीर का प्रसाद देना चाहिये । फिर धनलक्ष्मी स्वरूप, वैभवलक्ष्मी स्वरूप, मॉं लक्ष्मीजी की छबि को प्रणाम करे । मॉं लक्ष्मीजी का यह स्वरूप वैभव देने वाला है । प्रणाम करके मन ही मन भावुकता से मॉं की प्रार्थना करते वक्त कहे कि, 'हे मॉं धनलक्ष्मी! हे मॉं वैभवलक्ष्मी! मैने सच्चे ह्रदय से आपका वैभवलक्ष्मी व्रत' पूर्ण किया है । तो हे मॉं! हमारी (जो मनकामना की हो वह बोलो) पूर्ण करो । हमारा सबका कल्याण करो । जिसे संतान न हो उसे संतान देना । सौभाग्यशाली स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना । कंवारी लडकी को मनभावन पति देना । आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत जो करे उनकी सब विपत्ति दूर करना । सब को सुखी करना । हे मॉं! आपकी महिमा अपरंपार है।'

इस तरह मॉं की प्रार्थना करके मॉं लक्ष्मीजी का 'धनलक्ष्मी स्वरूप' को भाव से वंदन करो ।'

मांजी के पास से 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की शास्त्रीय विधि सुनकर शीला भावविभोर हो उठी । उसे लगा मानो सुख का रास्ता मिल गया है । उसने ऑंखे बंद करके मन ही मन उसी क्षण संकल्प लिया कि, 'हे वैभवलक्ष्मी मॉं! मैं भी मांजी के कहे मुताबिक श्रद्धा से शास्त्रीय विधि अनुसार 'वैभवलक्ष्मी व्रत' इक्कीस शुक्रवार तक करूंगी और व्रत की शास्त्रीय विधि अनुसार उद्यापन विधि करूंगी ।'

शीला ने संकल्प करके आंखे खोली तो सामने कोई न था । वह विस्मित हो गई कि मांजी कहॉं गये? यह मांजी दुसरा कोई नही था... साक्षात लक्ष्मीजी ही थी । शीला लक्ष्मीजी की भक्त थी । इसलिये अपने भक्त को रास्ता दिखाने के लिए मॉं लक्ष्मी देवी मांजी का स्वरूप धारण करके शीला के पास आई थी ।

दूसरे दिन शुक्रवार था । सवेरे स्नान करके स्वच्छ कपड़े पहनकर शीला मन ही मन श्रद्धा से और पूरे भाव से 'जय मां लक्ष्मी, जय मां लक्ष्मी' का मन ही मन रटन करने लगी । सार दिन किसी की चुगली की नही । शाम हुई तब हाथ-पांव-मुंह धो कर शीला पूर्व दिशा मे मुंह करके बैठी । घर में पहले सोने के बहुत से गहने थे । पर पतिदेव ने गलत रास्ते पर चढ़ कर सब गहने गिरवी रख दिये थे । पर नाक की चुन्नी(कांटा) बच गई थी । नाक की चुन्नी निकालकर, उसे धो कर शीला ने कटोरी मे रख दी । सामने पाटे पर रुमाल रख कर मुट्ठी भर चवल का ढेर किया । उस पर तांबे का कलश पानी भर कर रखा । उसके ऊपर चुन्नी वाली कटोरी रखी । फिर मांजी ने कही थी, वह शास्त्रीय विधि अनुसार वंदन, स्तवन, पूजन किया । और घर में थोडी शक्कर थी, वह प्रसाद में रखकर 'वैभवलक्ष्मी व्रत' किया ।

यह प्रसाद पहले पति को खिलाया । प्रसाद खाते ही पति के स्वभाव में फर्क पड गया । उस दिन उसने शीला को मारा नही, सताया भी नही । शीला को बहुत आनंद हुआ । उनके मन मे वैभवलक्ष्मी व्रत' के लिये श्रद्धा बढ़ गई ।

शीला ने पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से इक्कीस शुक्रवार तक वैभवलक्ष्मी व्रत' किया । इक्कीसवे शुक्रवार को मांजी के कहे मुताबिक उद्यापन विधि कर के सात स्त्रियों को 'वैभवलक्ष्मी व्रत' की सात पुस्तके उपहार मे दी । फिर माताजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को वंदन करके भाव से मन ही मन प्रार्थना करने लगी - 'हे मां धनलक्ष्मी! मैने आप का वैभवलक्ष्मी व्रत करने की मनत मानी थी वह व्रत आज पूर्ण किया है । हे मॉं! मेरी हर विपत्ति दूर करो । हमारा सबका कल्याण करो । जिसे संतान न हो, उसे संतान देना । सौभाग्यवती स्त्री का सौभाग्य अखंड रखना । कंवारी लड़की को मनभावन पति देना । आपका यह चमत्कारी वैभवलक्ष्मी व्रत करे, उनकी सब विपत्ति दूर करना । सब को सुखी करना । हे मां! आपकी महिमा अपार है । ऐसा बोल कर लक्ष्मीजी के 'धनलक्ष्मी स्वरूप' की छबि को प्रणाम किया ।

इस तरह शास्त्रीय विधिपूर्वक शीला ने श्रद्धा से व्रत किया और तुरन्त ही उसे फल मिला । उसका पति गलत रास्ते पर चला गया था, वह अच्छा आदमी हो गया और कडी मेहनत करके व्यवसाय करने लगा । मां लक्ष्मीजी के वैभवलक्ष्मी व्रत के प्रभाव से उसको ज्यादा लाभ होने लगा । उसने तुरन्त शीला के गिरवी रखे गहने छुडा लिये । घर मे धन की बाढ सी आ गई । घर मे पहले जैसी सुख-शांति छा गई ।

वैभवलक्ष्मी व्रत का प्रभाव देख कर स्त्रिया भी शास्त्रीय विधिपूर्वक वैभवलक्ष्मी व्रत करने लगी ।

हे मां धनलक्ष्मी! आप जैसे शीला पर प्रसन्न हुई, उसी तरह आपका व्रत करने वाले सब पर प्रसन्न होना । सबको सुख-शांति देना । जय धनलक्ष्मी मां! जय वैभवलक्ष्मी मां!

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* Save Paper, Go Green !!

शनिवार व्रत कथा

पूजन विधि

इस दिन शनिदेव की पूजा होती है | काला तिल, काले वस्त्र, तेल, उड़द शनि भगवान को प्रिय है अतः इनके द्वारा शनिदेव की पूजा की जाती है | शनि स्तोत्र का पाठ भी विशेष लाभदायक सिद्ध होता है |

शनिवार व्रत की कथा

एक समय सूर्य, चंद्रमा, मंगल,बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहू, केतु इन सब ग्रहों में आपस में विवाद हो गया कि हममे से सबसे बड़ा कौन है | सब अपने को बड़ा कहते थे | जब आपस में कोई निश्चय ना हो सका तो सब आपस में झगड़ते हुए देवराज इंद्र के पास गए और कहने लगे कि आप सब देवताओं के राजा है अतः आप हमारा न्याय करके बतलावे कि हम नव ग्रहों में से सबसे बड़ा कौन है |
देवराज इंद्र देवताओं का प्रश्न सुनकर घबरा गए और कहने लगे कि मुझमे यह सामर्थ्य नहीं है कि मै किसी को छोटा या बड़ा बतला सकूँ | मै अपने मुख से कुछ नहीं कह सकता, हाँ , एक उपाय हो सकता है | इस समय पृथ्वी पर राजा विक्रमादित्य दूसरों के दुखों को निवारण करने वाले है | इसलिए आप सब उनके पास जाएँ, वाही आपके विवाद का निवारण करेंगे |

सभी गृह-देवता देवलोक से चलकर भूलोक में राजा विक्रमादित्य की सभा में उपस्थित हुए और अपना प्रश्न राजा के सामने रखा |

राजा विक्रमादित्य ग्रहों की बाते सुनकर गहन चिंता में पड़ गए कि मै अपने मुख से किसको छोटा और किसे बड़ा बतलाऊंगा | जिसे छोटा बतलाऊंगा, वही क्रोध करेगा | उनका झगडा निपटने के लिए उन्होंने एक उपाय सोचा और सोना, चाँदी, कांसा, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लोहा नौ धातुओं के नौ आसन बनवाएं | सब आसनों को क्रम में जैसे सोना सबसे पहले और लोहा सबसे पीछे बिछाया गया |

इसके बाद राजा ने सब ग्रहों से कहा कि सब अपना अपना आसन ग्रहण करें | जिसका आसन सबसे आगे, वह सबसे बड़ा और जिसका आसन सबसे पीछे वह सबसे छोटा जानिए | क्योकि लोहा सबसे पीछे था और शनिदेव का आसन था इसलिए शनिदेव ने समझ लिया कि राजा ने मुझे सबसे छोटा बना दिया है|

इस निर्णय पर शनिदेव को बहुत क्रोध आया | उन्होंने कहा कि राजा तू मुझे नहीं जानता | सूर्य एक राशी पर एक महीना, चन्द्रमा सवा दो महीना दो दिन, मँगल डेढ़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने , बुध और शुक्र एक-एक महीना विचरण करते है | परन्तु मै एक राशी पर ढाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष तक रहता हूँ | बड़े बड़े देवताओं को भी मैंने भीषण दुःख दिया है | राजन सुनो ! श्री रामचन्द्रजी को भी साढ़े साती आई और उन्हें वनवास हो गया | रावण पर आई तो राम ने वानरों की सेना लेकर लंका पर चढाई कर दी और रावण के कुल का नाश कर दिया | हे राजन ! अब तुम सावधान रहना |
राजा विक्रमादित्य ने कहा- जो भाग्य में होगा, देखा जायेगा |

इसके बाद अन्य ग्रह तो प्रसन्नता से अपने अपने स्थान पर चले गए परन्तु शनिदेव क्रोध से वहां से गए |
कुछ काल व्यतीत होने पर जब राजा विक्रमादित्य को साढ़े साती की दशा आई तो शनिदेव घोड़ों के सौदागर बनकर अनेक घोड़ो सहित राजा की राजधानी में आये | जब राजा ने घोड़ो के सौदागर के आने की बात सुनी तो अपने अश्वपाल को अच्छे अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी | अश्वपाल ऐसी अच्छी नस्ल के घोड़े देखकर और एक अच्छा- सा घोडा चुनकर सवारी के लिए राजा घोड़े पर चढ़े |

राजा के पीठ पर बैठते ही घोडा तेजी से भागा | घोडा बहुत दूर एक घने जंगल में जाकर राजा को छोड़कर अंतर्ध्यान हो गया | इसके बाद राजा विक्रमादित्य अकेले जंगल में भटकते फिरते रहे | भूख-प्यास से दुखी राजा ने भटकते-भटकते एक ग्वाले को देखा | ग्वाले ने राजा को प्यास से व्याकुल देखकर पानी पिलाया | राजा की अंगुली में अंगूठी थी | वह अंगूठी राजा ने निकल कर प्रसन्नता से ग्वाले को दे दी और स्वयं नगर की ओर चल दिए|

राजा नगर पहुंचकर एक सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गए और अपने आप को उज्जैन का रहने वाला और अपना नाम विका बताया | सेठ ने उनको एक कुलीन मनुष्य समझ कर जल आदि पिलाया | भाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर बहुत अधिक बिक्री हुई | तब सेठ उसे भाग्यवान पुरुष समझकर अपने घर ले गया | भोजन करते समय राजा ने एक आश्चर्यजनक घटना देखि, जिस खूंटी पर हार लटक रहा था, वह खूंटी उस हार को निगल रही थी|

भोजन के पश्चात जब सेठ उस कमरे में आया तो उसे कमरे में हार नहीं मिला | उसने यही निश्चय किया कि सिवाय विका के यहाँ कोई नहीं आया, अतः अवश्य ही उसने हार चोरी किया है | परन्तु विका ने हार लेने से इनकार कर दिया | इस पर पाँच-सात आदमी उसे पकड़कर नगर-कोतवाल के पास ले गए|

फौजदार ने उसे राजा के सामने उपस्थित कर दिया और कहा कि यह आदमी भला प्रतीत होता है, चोर मालूम नहीं होता, परन्तु सेठ का कहना है कि इसके सिवा और कोई घर में आया ही नहीं, इसलिए अवश्य ही चोरी इसने की है | राजा ने आगया दी कि इसके हाथ-पैर काटकर चौरंगिया किया जाये | तुरंत राजा की आज्ञा का पालन किया गया और विका के हाथ-पैर काट दिए गए |
कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसे अपने घर ले गया और उसको कोल्हू पर बिठा दिया | वीका उसपर बैठा हुआ अपनी जबान से बैल हांकता रहा | इस काल में राजा कि शनि कि दशा समाप्त हो गयी | वर्षा ऋतु के समय वह मल्हार राग गाने लगा | यह राग सुनकर उस राजा की कन्या मनभावनी उस राग पर मोहित हो गयी | राजकन्या ने राग गाने वाले की खबर लाने के लिए अपनी दासी को भेजा | दासी सारे शहर में घुमती रही | जब वह तेली के घर के निकट से निकली तो क्या देखती है कि तेली के घर में चौरंगिया राग गा रहा था | दासी ने लौटकर राजकुमारी को सारा वृतांत सुना दिया | बस उसी क्षण राजकुमारी ने यह प्राण कर लिया कि अब कुछ भी हो मुझे उसी चौरंगिया से विवाह करना है |

प्रातःकाल होते ही जब दासी ने राजकुमारी को जगाना चाहा तो राजकुमारी अनशन व्रत ले कर पड़ी रही | दासी ने रानी के पास जाकर राजकुमारी के ना उठने का वृतांत कहा | रानी ने वहां आकर राजकुमारी को जगाया और उसके दुःख का कारन पुछा | राजकुमारी ने कहा कि माताजी तेली के घर में जो चौरंगिया है , मै उसी से विवाह करुँगी |माता ने कहा-पगली, तू यह क्या कह रही है? तुझे किसी देश के राजा के साथ परिणय जायेगा | कन्या कहने लगी कि माताजी मै अपना प्रण कभी ना तोडूंगी| माता ने चिंतित होकर यह बात राजा को बताई | महाराज ने भी आकर उसे समझाया कि मै अभी देश-देशांतर में अपने दूत भेजकर सुयोग्य,रूपवान एवं बड़े-से-बड़े गुणी राजकुमार के साथ तुम्हारा विवाह करूँगा | ऐसी बात तुम्हे कभी नहीं विचारनी चाहिए | परन्तु राजकुमारी ने कहा- "पिताजी, मै अपने प्राण त्याग दूंगी किसी दुसरे से विवाह नहीं करुँगी | " यह सुनकर राजा ने क्रोध से कहा यदि तेरे भाग्य में यही लिखा है तो जैसी तेरी इच्छा हो, वैसे ही कर | राजा ने तेली को बुलाकर कहा तेरे घर में जो चौरंगिया है मै उससे अपनी कन्या का विबाह कराना चाहता हूँ | तेली ने कहा- महाराज यह कैसे हो सकता है ? राजा ने कहा कि भाग्य के लिखे को कोई टाल नहीं सकता | अपने घर जाकर विवाह की तैयारी करो |

राजा ने सारी तैय्यारी कर तोरण और बन्दनवार लगवाकर राजकुमारी का विवाह चौरंगिया के साथ कर दिया | रात्रि को जब विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोये तब आधी रात के समय शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिया और कहा कि राजा मुझको छोटा बतलाकर तुमने कितना दुःख उठाया | राजा ने शनिदेव से क्षमा मांगी | शनिदेव ने राजा को क्षमा कर दिया और प्रसन्न होकर विक्रमादित्य को हाथ-पैर दिए | तब राजा विक्रमादित्य ने शनिदेव से प्रार्थना की कि महाराज मेरी प्रार्थना स्वीकार करें, जैसा दुःख मुझे दिया है ,ऐसा किसी को ना दें | शनिदेव ने कहा कि तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार है | जो मनुष्य मेरी कथा कहेगा या सुनेगा उसे मेरी दशा में कभी भी दुःख नहीं होगा | जो नित्य मेरा ध्यान करेगा या चींटियों को आटा डालेगा उसके सब मनोरथ पूर्ण होंगे | इतना कह कर शनिदेव अपने धाम को चले गए |

जब राजकुमारी मनभावनी की आँख खुली और उसने चौरंगिया को हाथ-पैरो के साथ देखा तो आश्चर्यचकित हो गयी | उसको देखकर राजा विक्रमादित्य ने अपना सारा हाल कहा की मै उज्जयिनी का राजा विक्रमादित्य हूँ| यह घटना सुनकर राजकुमारी अति प्रसन्न हुई | प्रातकाल जब सखियों ने राजकुमारी से पिछली रात का हाल-चाल पूछा तो उसने अपने पति का समस्त वृतांत कह सुनाया | तब सबने प्रसन्नता व्यक्त की और कहा की इश्वर आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करे | जब सेठ ने यह घटना सुनी तो वह राजा विक्रमादित्य के पास आया और उनके पैरो पर गिरकर क्षमा मांगने लगा की आप पर मैंने चोरी का झूठा दोष लगाया था | आप जो चाहे,मुझे दंड दे | राजा ने कहा-मुझ पर शनिदेव का कोप था इसी कारण यह सब दुःख मुझे प्राप्त हुए,इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है | तुम अपने घर जाकर अपना कार्य करो, तुम्हारा कोई अपराध नहीं | सेठ बोला-"महाराज! मुझे तभी शांति मिलेगी, जब आप मेरे घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेंगे|" राजा ने कहा जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करें |

सेठ ने अपने घर जाकर अनेक प्रकार के सुंदर व्यंजन बनवाए और राजा विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया | जिस समय राजा भोजन कर रहे थे उस समय एक आश्चर्यजनक घटना घटती सबको दिखाई दी | जो खूंटी पहले हार निगल गयी थी वह अब हार उगल रही थी | जब भोजन समाप्त हो गया तब सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत-सी मोहरें राजा को भेंट की और कहा-"मेरी श्रीकंवरी नामक एक कन्या है, आप उसका पाणिग्रहण करे |" राजा विक्रमादित्य ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली | तब सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत-सा दान-दहेज़ आदि दिया | कुछ दिन तक उस राज्य में निवास करने के पश्चात राजा विक्रमादित्य ने अपने श्वसुर राजा से कहा की मेरी उज्जैन जाने की इच्छा है |

कुछ दिन बाद विदा लेकर राजकुमारी मनोभावनी, सेठ की कन्या तथा दोनों की जगह से मिला दहेज़ में प्राप्त अनेक दास-दासी, रथ और पालकियों सहित राजा विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चले | जब वो नगर के निकट पहुंचे और पुरवासियों ने आने का संवाद सुना तो उज्जैन की समस्त प्रजा आगवानी के लिए आई | प्रसन्नता से राजा अपने महल में पधारे | सारे नगर में भारी उत्सव मनाया गया और शनिदेव को दीप माला की गयी | दुसरे दिन राजा ने अपने पूरे राज्य में यह घोषणा करवाई की शनिदेव सभी ग्रहों में सर्वोपरि है | मैंने इन्हें छोटा बतलाया, इसी से मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ | इसप्रकार सारे राज्य में शनिदेव की पूजा और कथा होने लगी | राजा और प्रजा अनेक प्रकार के सुख भोगने लगे | जो कोई शनिदेव की इस कथा को पढता या सुनता है, शनिदेव की कृपा से उसके सब दुःख दूर हो जाते है | व्रत के दिन शनिदेव की कथा को अवश्य पढ़ना चाहिए |

समाप्त

Ahoi Ashatami Vrat Katha अहोई अष्टमी व्रत


सेठ सेठानी की कथा (१)


किसी नगर में एक साहूकार रहता था | उसके सात पुत्र थे | एक दिन साहूकार की पत्नी खदान में मिटटी खोदकर लाने गयी | ज्योही उसने मिटटी खोदने के लिए कुदाल चलायी त्योही उसमे रह रहे स्याऊ के बच्चे प्रहार से आहात हो मर गए | जब साहूकार की पत्नी ने स्याऊ को रक्त रंजित देखा तो उसे बच्चो के मर जाने का अत्यंत दुःख हुआ | परन्तु जो कुछ होना था वह हो चूका था | यह भूल उससे अनजाने में हो गयी थी | अतः वह दुखी मन से घर लौट आई | पश्चाताप के कारण वह मिटटी भी नहीं लायी |

इसके बाद स्याऊ जब घर में आई तो उसने अपने बच्चो को मृत अवस्था में पाया | वह दुःख से कातर हो अत्यंत विलाप करने लगी | उसने इश्वर से प्रार्थना की कि जिसने मेरे बच्चो को मारा है उसे भी त्रिशोक दुःख भुगतना पड़े | इधर स्याऊ के शाप से एक वर्ष के भीतर ही सेठानी के सातों बच्चे काल-कालावित हो गए | इसप्रकार कि दुखद घटना देखकर सेठ-सेठानी अत्यंत शोकाकुल हो उठे |
उस दंपत्ति ने किसी तीर्थ स्थान पर जाकर अपने प्राणों का विसर्जन कर देने का मन में संकल्प कर लिया | मन में ऐसा निश्चय कर सेठ-सेठानी पैदल ही तीर्थ कि ओर चल पड़े | उन दोनों का शरीर पूर्ण र्रोप से अशक्त न हो गया तब तक वे बराबर आगे बढ़ते रहे | जब वे चलने में पूरी तरह असमर्थ हो गए, तो रास्ते में ही मूर्छित होकर गिर पड़े |

उन दोनों कि इस दयनीय दशा को देखकर करूणानिधि भगवान् उनपर दयाद्र हो गए और आकाशवाणी की- "हे सेठ ! तेरी सेठानी ने मिटटी खोदते समय अनजाने में ही साही के बच्चो को मार डाला था , इसीलिए तुझे भी अपने बच्चो का कष्ट सहना पड़ा | " भगवान् ने आगया दी - " अब तुम दोनों अपने घर जाकर गाय कि सेवा करो और अहोई अष्टमी आने पर विधि-विधान व् प्रेम से अहोई माता कि पूजा करो | सभी जीवों पर दया भाव रखो, किसी का अहित न करो | यदि तुम मेरे कहे अनुसार आचरण करोगे, तो तुम्हे संतान सुख प्राप्त हो जायेगा | "

इस आकाशवाणी को सुनकर सेठ-सेठानी को कुछ धैर्य हुआ और उन्होंने भगवती का स्मरण करते हुए अपने घर को प्रस्थान किया | घर पहुंचकर उन दोनों ने आकाशवाणी के अनुसार कार्य करना प्राम्भ कर दिया | इसके साथ ही ईर्ष्या-द्वेष कि भावना से रहित होकर सभी प्राणियों पर करुणा का भाव रखना प्रारम्भ कर दिया |

भगवत कृपा से सेठ-सेठानी पुनः पुत्रवान होकर सभी सुखो का भोग करते हुए अन्तकाल में स्वर्गामी हुए |


साहुकार कि कथा (२)

एक साहुकार के सात बेटे, सात बहुएँ एवं एक कन्या थी | उसकी बहुएँ कार्तिक कृष्ण अष्टमी को अहोई माता के पूजन के लिए जंगल में अपनी नाद के साथ मिटटी लेने गयी | मिटटी निकालने के स्थान पर ही स्याऊ की मांद थी | मिटटी खोदते समय ननद के हाथ से स्याहू का बच्चा छोट खाकर मर गया | श्याहू के माता बोली अब मै तेरी कोख बांधुगी अर्थात अब मै तुझे संतान - विहीन कर दूंगी | उसकी बात सुनकर ननद ने अपनी सभी भाभियों से अपने बदले में कोख बंधा लेने का आग्रह किया परन्तु उसकी सभी भाभियों ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया | परन्तु उसकी छोटी भाभी ने कुछ सोच-समझकर अपनी कोख बंधाने कि स्वीकृति दे दी |

तदन्तर उस भाभी को जो भी संतान होती वे साथ दिनों के बाद ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती | एक दिन पंडित को बुलाकर इस बात का पता लगाया गया |

पंडित ने कहा तुम काली गाय कि पूजा किया करो | काली गाय रिश्ते में स्याहू कि भायली लगती है | वह यदि तेरी कोख छोड़ दे तो तेरे बच्चे जी सकते है | पंडित कि बात सुनकर छोटी बहु ने दुसरे ही दिन से काली गाय कि सेवा प्रारंभ कर दी | वह प्रतिदिन सुबह सवेरे ऊठकर गाय का गोबर आदि साफ़ कर देती | गाय ने मन में सोचा यह कार्य कौन कर रहा है, इसका पता लगाउंगी |
दुसरे दिन गाय माता तडके उठकर क्या देखती है कि उस स्थान पर साहुकार कि एक बहु झाड़ू-बुहारा कर रही है | गौ माता ने उससे पूछा कि तू किसलिए मेरी इतनी सेवा कर रही है ?और मुझसे क्या चाहती है? जो कुछ तेरी इच्छा हो, वो मुझसे मांग ले | साहुकार कि बहु ने कहा- गाय माता, स्याहू माता ने मेरी कोख बाँध दी है, जिससे मेरे बच्चे नहीं बचते है | यदि आप मेरी कोख खुलवा दे तो मै आपका बहुत उपकार मनुगी |

गाय माता ने उअसकी बात मान ली और उसे लेकर सात समंदर पार स्याह माता के पास ले चली | रास्ते में कड़ी धुप से व्याकुल होकर दोनों एक पेड़ कि छाया में बैठ गयी |

जिस पेड़ के नीचे वे दोनों बैठी थी, उस पेड़ पर गरुड़ पक्षी का एक बच्चा रहता था | थोड़ी देर में ही सांप आकर उस बच्चे को मरने लगा | इस द्रश्य को देखकर साहूकार कि बहु ने उस साँप को मरदाला और उसे एक दाल के नीचे छिपा दिया | इसके पश्चात् गरुड़ कि माँ ने वहां रक्त पड़ा देखकर साहूकार कि बहु को चोंच मरने लगी | तब साहूकार कि बहु बोली- मैंने तेरे बच्चे को नहीं मारा है , तेरे बच्चे को डसने कि लिए सांप आया था, मैंने उसे मरकर तेरे बच्चे कि रक्षा की है | मारा हुआ सांप दाल के नीचे दबा हुआ है |

बहु की बात सुनकर पक्षी प्रसन्न हो गयी और बोली- तू जो कुछ चाहती है, मुझसे मांग ले | बहु ने उससे कहा- सात समंदर पार स्याहू माता रहती है, तुम मुझे उन तक पहुंचा दो | तब उस गरुड़ ने उन दोनों को पंख पर बैठकर समुन्द्र के पार पहुंचा दिया |

स्याहू माता उन्हें देखकर बोली - आ बहिन, बहुत दिनों बाद याद आई है | वह पुनः बोली मेरे सर में जुए पड़ गयी है, उन्हें निकाल दे| काली गाय के कहने पर, साहूकार की बहु ने सिलाई से स्याहू माता की साड़ी जुओं को निकाल दिया | इस पर स्याहू माता अति प्रसन्न हो गयी | स्याहू माता ने उसे कहा- तेरे सात बेटे और सात बहुए हों | सुनकर साहूकार की बहु ने कहा- मुझे तो एक भी बेटा नहीं है , सात कहा से होंगे | स्याहू माता ने पूचा- इसका कारण क्या है ? उसने कहा यदि आप वचन दे,तो इसका कारण बता सकती हूँ |

स्याहू माता ने उसे वचन दे दिया | तब साहूकार की बहु ने कहा - मेरी कोख तुम्हारे पास बंधी पड़ी है , उसे खोल दें |
स्याहू माता ने कहा- मै तेरी बातों में आकर धोखा खा गयी | अब मुझे तेरी कोख खोलनी पड़ेगी | इतना कहने के साथ ही स्याहू माता ने कहा- अब तू घर जा | तेरे सात बेटे और सात बहुएँ होंगी | घर जाकर तू अहोई माता का उद्यापन करना | सात अहोई बनाकर सात कडाही देना | उसने घर लौट कर देखा तो उसे सात बेटे और सात बहुए बैठी हुई मिली |

वह ख़ुशी के मरे भाव-विभोर हो गयी | उसने सात अहोई बनाकर सात कडाही देकर उद्य्पन किया |

इसके बाद शीघ्र ही दीपावली आई | उसकी जेठानिया कहने लगी- सभी लोग पूजा का कार्य शीघ्र पूरा कर लो , कहीं ऐसा न हो की छोटी बहु अपने बच्चो का स्मरण कर रोना-धोना शुरू कर दे , नहीं तो रंग में भंग हो जायेगा |

जानकारी करने के लिए उन्होंने अपने बच्चो को छोटी बहु के घर भेजा , क्योकि छोटी बहु रुदन नहीं कर रही थी | बच्चो ने घर आकर बताया कि वह वहां आटा गूँथ रही है और उद्यापन का कार्य चल रहा है | इतना सुनते ही जेठानिया उसके घर आकर पूछने लगी कि तुने अपनी कोख कैसे खुलवाई | उसने कहा - स्याह माता ने कृपाकर उसकी कोख खोल दी | सब लोग अहोई माता कि जय जयकार करने लगे |

जिस तरह अहोई माता ने साहूकार कि बहु कि कोख को खोल दिया उसीप्रकार इस व्रत को करने वाली सभी नारियों कि अभिलाषा को पूर्ण करें |

Somvar Vrat Katha सोमवार व्रत


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Mangalvar Vrat Katha


Santaan Saptami Vrat Katha


श्री सन्तान सप्तमी व्रत कथा

एक दिन महाराज युधिष्ठिर ने भगवान से कहा- हे प्रभो! कोई ऐसा उत्तम व्रत बतलाइये जिसके प्रभाव से मनुष्यों के अनेकों सांसारिक क्लेश दुःख दूर होकर वे पुत्र एवं पौत्रवान हो जाएं।

यह सुनकर भगवान बोले - हे राजन्‌! तुमने बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है। मैं तुमको एक पौराणिक इतिहास सुनाता हूं ध्यानपूर्वक सुनो। एक समय लोमष ऋषि ब्रजराज की मथुरापुरी में वसुदेव के घर गए।

ऋषिराज को आया हुआ देख करके दोनों अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उनको उत्तम आसन पर बैठा कर उनका अनेक प्रकार से वन्दन और सत्कार किया। फिर मुनि के चरणोदक से अपने घर तथा शरीर को पवित्र किया।

वह प्रसन्न होकर उनको कथा सुनाने लगे। कथा के कहते लोमष ने कहा कि - हे देवकी! दुष्ट दुराचारी पापी कंस ने तुम्हारे कई पुत्र मार डाले हैं जिसके कारण तुम्हारा मन अत्यन्त दुःखी है।

इसी प्रकार राजा नहुष की पत्नी चन्द्रमुखी भी दुःखी रहा करती थी किन्तु उसने संतान सप्तमी का व्रत विधि विधान सहित किया। जिसके प्रताप से उनको सन्तान का सुख प्राप्त हुआ।

यह सुनकर देवकी ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा- हे ऋषिराज! कृपा करके रानी चन्द्रमुखी का सम्पूर्ण वृतान्त तथा इस व्रत को विस्तार सहित मुझे बतलाइये जिससे मैं भी इस दुःख से छुटकारा पाउं।

लोमष ऋषि ने कहा कि - हे देवकी! अयोध्या के राजा नहुष थे। उनकी पत्नी चन्द्रमुखी अत्यन्त सुन्दर थीं। उनके नगर में विष्णुगुप्त नाम का एक ब्राह्‌मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम भद्रमुखी था। वह भी अत्यन्त रूपवती सुन्दरी थी।

रानी और ब्राह्‌मणी में अत्यन्त प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू नदी में स्नान करने के लिए गई। वहां उन्होंने देखा कि अन्य बहुत सी स्त्रियां सरयू नदी में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहन कर एक मण्डप में शंकर एवं पार्वती की मूर्ति स्थापित करके पूजा कर रही थीं।

रानी और ब्राह्‌मणी ने यह देख कर उन स्त्रियों से पूछा कि - बहनों! तुम यह किस देवता का और किस कारण से पूजन व्रत आदि कर रही हो। यह सुन कर स्त्रियों ने कहा कि हम सनतान सप्तमी का व्रत कर रही हैं और हमने शिव पार्वती का पूजन चन्दन अक्षत आदि से षोडषोपचार विधि से किया है। यह सब इसी पुनी व्रत का विधान है।

यह सुनकर रानी और ब्राह्‌मणी ने भी इस व्रत के करने का मन ही मन संकल्प किया और घर वापस लौट आईं। ब्राह्‌मणी भद्रमुखी तो इस व्रत को नियम पूर्वक करती रही किन्तु रानी चन्द्रमुखी राजमद के कारण कभी इस व्रत को करती, कभी न करती। कभी भूल हो जाती। कुछ समय बाद दोनों मर गई। दूसरे जन्म में रानी बन्दरिया और ब्राह्‌मणी ने मुर्गी की योनि पाई।

परन्तु ब्राह्‌मणी मुर्गी की योनि में भी कुछ नहीं भूली और भगवान शंकर तथा पार्वती जी का ध्यान करती रही, उधर रानी बन्दरिया की योनि में, भी सब कुछ भूल गई। थोड़े समय के बाद दोनों ने यह देह त्याग दी।

अब इनका तीसरा जन्म मनुष्य योनि में हुआ। उस ब्राह्‌मणी ने एक ब्राह्‌मणी के यहां कन्या के रूप में जन्म लिया। उस ब्राह्‌मण कन्या का नाम भूषण देवी रखा गया तथा विवाह गोकुल निवासी अग्निशील ब्राह्‌मण से कर दिया, भूषण देवी इतनी सुन्दर थी कि वह आभूषण रहित होते हुए भी अत्यन्त सुन्दर लगती थी। कामदेव की पत्नी रति भी उसके सम्मुख लजाती थी। भूषण देवी के अत्यन्त सुन्दर सर्वगुणसम्पन्न चन्द्रमा के समान धर्मवीर, कर्मनिष्ठ, सुशील स्वभाव वाले आठ पुत्र उत्पन्न हुए।

यह सब शिवजी के व्रत का पुनीत फल था। दूसरी ओर शिव विमुख रानी के गर्भ से कोई भी पुत्र नहीं हुआ, वह निःसंतान दुःखी रहने लगी। रानी और ब्राह्‌मणी में जो प्रीति पहले जन्म में थी वह अब भी बनी रही।

रानी जब वृद्ध अवस्था को प्राप्त होने लगी तब उसके गूंगा बहरा तथा बुद्धिहीन अल्प आयु वाला एक पुत्र हुआ वह नौ वर्ष की आयु में इस क्षणभंगुर संसार को छोड़ कर चला गया।

अब तो रानी पुत्र शोक से अत्यन्त दुःखी हो व्याकुल रहने लगी। दैवयोग से भूषण देवी ब्राह्‌मणी, रानी के यहां अपने पुत्रों को लेकर पहुंची। रानी का हाल सुनकर उसे भी बहुत दुःख हुआ किन्तु इसमें किसी का क्या वश! कर्म और प्रारब्ध के लिखे को स्वयं ब्रह्‌मा भी नहीं मिटा सकते।

रानी कर्मच्युत भी थी इसी कारण उसे दुःख भोगना पड ा। इधर रानी पण्डितानी के इस वैभव और आठ पुत्रों को देख कर उससे मन में ईर्ष्या करने लगी तथा उसके मन में पाप उत्पन्न हुआ। उस ब्राह्‌मणी ने रानी का संताप दूर करने के निमित्त अपने आठों पुत्र रानी के पास छोड दिए।

रानी ने पाप के वशीभूत होकर उन ब्राह्‌मणी पुत्रों की हत्या करने के विचार से लड्‌डू में विष मिलाकर उनको खिला दिया परन्तु भगवान शंकर की कृपा से एक भी बालक की मृत्यु न हुई।

यह देखकर तो रानी अत्यन्त ही आश्चर्य चकित हो गई और इस रहस्य का पता लगाने की मन में ठान ली। भगवान की पूजा से निवृत्त होकर जब भूषण देवी आई तो रानी ने उस से कहा कि मैंने तेरे पुत्रों को मारने के लिए इनको जहर मिलाकर लड्‌डू लिखा दिया किन्तु इनमें से एक भी नहीं मरा। तूने कौन सा दान, पुण्य, व्रत किया है। जिसके कारण तेरे पुत्र नहीं मरे और तू नित नए सुख भोग रही है। तेरा बड़ा सौभाग्य है। इनका भेद तू मुझसे निष्कपट होकर समझा मैं तेरी बड ी ऋणी रहूंगी।

रानी के ऐसे दीन वचन सुनकर भूषण ब्राह्‌मणी कहने लगी - सुनो तुमको तीन जन्म का हाल कहती हूं, सो ध्यान पूर्वक सुनना, पहले जन्म में तुम राजा नहुष की पत्नी थी और तुम्हारा नाम चन्द्रमुखी था मेरा भद्रमुखी था और मैं ब्राह्‌मणी थी। हम तुम अयोध्या में रहते थे और मेरी तुम्हारी बड ी प्रीति थी। एक दिन हम तुम दोनों सरयू नदी में स्नान करने गई और दूसरी स्त्रियों को सन्तान सप्तमी का उपवास शिवजी का पूजन अर्चन करते देख कर हमने इस उत्तम व्रत को करने की प्रतिज्ञा की थी। किन्तु तुम सब भूल गई और झूठ बोलने का दोष तुमको लगा जिसे तू आज भी भोग रही है।

मैंने इस व्रत को आचार-विचार सहित नियम पूर्वक सदैव किया और आज भी करती हूं। दूसरे जन्म में तुमने बन्दरिया का जन्म लिया तथा मुझे मुर्गी की योनि मिली। भगवान शंकर की कृपा से इस व्रत के प्रभाव तथा भगवान को इस जन्म में भी न भूली और निरन्तर उस व्रत को नियमानुसार करती रही। तुम अपने बंदरिया के जन्म में भी भूल गई।

मैं तो समझती हूं कि तुम्हारे उपर यह जो भारी संगट है उसका एक मात्र यही कारण है और दूसरा कोई इसका कारण नहीं हो सकता। इसलिए मैं तो कहती हूं कि आप सब भी सन्तान सप्तमी के व्रत को विधि सहित करिये जिससे आपका यह संकट दूर हो जाए।

लोमष ऋषि ने कहा- हे देवकी! भूषण ब्राह्‌मणी के मुख से अपने पूर्व जन्म की कथा तथा व्रत संकल्प इत्यादि सुनकर रानी को पुरानी बातें याद आ गई और पश्चाताप करने लगी तथा भूषण ब्राह्‌मणी के चरणों में पड़कर क्षमा याचना करने लगी और भगवान शंकर पार्वती जी की अपार महिमा के गीत गाने लगी। उस दिन से रानी ने नियमानुसार सन्तान सप्तमी का व्रत किया। जिसके प्रभाव से रानी को सन्तान सुख भी मिला तथा सम्पूर्ण सुख भोग कर रानी शिवलोक को गई।

भगवान शंकर के व्रत का ऐसा प्रभाव है कि पथ भ्रष्ट मनुष्य भी अपने पथ पर अग्रसर हो जाता है और अनन्त ऐश्वर्य भोगकर मोक्ष पाता है। लोमष ऋषि ने फिर कहा कि - देवकी! इसलिए मैं तुमसे भी कहता हूं कि तुम भी इस व्रत को करने का संकल्प अपने मन में करो तो तुमको भी सन्तान सुख मिलेगा।

इतनी कथा सुनकर देवकी हाथ जोड कर लोमष ऋषि से पूछने लगी- हे ऋषिराज! मैं इस पुनीत उपवास को अवश्य करूंगी, किन्तु आप इस कल्याणकारी एवं सन्तान सुख देने वाले उपवास का विधान, नियम आदि विस्तार से समझाइये।

यह सुनकर ऋषि बोले- हे देवकी! यह पुनीत उपवास भादों भाद्रपद के महीने में शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन किया जाता है। उस दिन ब्रह्‌ममुहूर्त में उठकर किसी नदी अथवा कुएं के पवित्र जल में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहिनने चाहिए। श्री शंकर भगवान तथा जगदम्बा पार्वती जी की मूर्ति की स्थापना करें। इन प्रतिमाओं के सम्मुख सोने, चांदी के तारों का अथवा रेशम का एक गंडा बनावें उस गंडे में सात गांठें लगानी चाहिए। इस गंडे को धूप, दीप, अष्ट गंध से पूजा करके अपने हाथ में बांधे और भगवान शंकर से अपनी कामना सफल होने की प्रार्थना करें।

तदन्तर सात पुआ बनाकर भगवान को भोग लगावें और सात ही पुवे एवं यथाशक्ति सोने अथवा चांदी की अंगूठी बनवाकर इन सबको एक तांबे के पात्र में रखकर और उनका शोडषोपचार विधि से पूजन करके किसी सदाचारी, धर्मनिष्ठ, सुपात्र ब्राह्‌मण को दान देवें। उसके पश्चात सात पुआ स्वयं प्रसाद के रूप में ग्रहण करें।

इस प्रकार इस व्रत का पारायण करना चाहिए। प्रतिसाल की शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन, हे देवकी! इस व्रत को इस प्रकार नियम पूर्व करने से समस्त पाप नष्ट होते हैं और भाग्यशाली संतान उत्पन्न होती है तथा अन्त में शिवलोक की प्राप्ति होती है।

हे देवकी! मैंने तुमको सन्तान सप्तमी का व्रत सम्पूर्ण विधान विस्तार सहित वर्णन किया है। उसको अब तुम नियम पूर्वक करो, जिससे तुमको उत्तम सन्तान पैदा होगी। इतनी कथा कहकर भगवान आनन्दकन्द श्रीकृष्ण ने धर्मावतार युधिष्ठिर से कहा कि - लोमष ऋषि इस प्रकार हमारी माता को शिक्षा देकर चले गए। ऋषि के कथनानुसार हमारी माता देवकी ने इस व्रत को नियमानुसार किया जिसके प्रभाव से हम उत्पन्न हुए।

यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों के लिए कल्याणकारी है परन्तु पुरुषों को भी समान रूप से कल्याण दायक है। सन्तान सुख देने वाला पापों का नाश करने वाला यह उत्तम व्रत है जिसे स्वयं भी करें तथा दूसरों से भी करावें। नियम पूर्वक जो कोई इस व्रत को करता है और भगवान शंकर एवं पार्वती की सच्चे मन से आराधना करता है निश्चय ही अमरपद पद प्राप्त करके अन्त में शिवलोक को जाता है।

शंकर भगवान की जय॥

Shukravar Vrat Katha शुक्रवार व्रत

पूजन विधि :


इस व्रत को करने वाले कथा के पूर्व कलश को पूर्ण भरें, उसके ऊपर गुड़ व् चने से भरी कटोरी रखें, कथा कहते व् सुनते समय हाथ में भुने चने व् गुड़ रखें | कथा सुनने वाले "संतोषी माता की जय" इसप्रकार जयकार बोले जाएँ | कथा समाप्त होने पर हाथ का गुड़ व् चना गौ माता को खिलाएं | कलश में रखा गुड़ व् चना सबको प्रसाद स्वरुप बाँट दे | कथा समाप्त होने व् आरती के बाद कलश के जल को घर में सब जगह छिडके , बचा हुआ जल तुलसी की क्यारी में डालें | माता भावना की भूखी हैं , कम जयादा का कुछ विचार नहीं,अतः जितना बन पड़े प्रसाद अर्पण कर, श्रृद्धा और प्रेम से प्रसन्न मन से व्रत करना चाहियें | व्रत के उद्यापन में ढाई सेर खाजा, चने का साग, पूरी खीर, नैवेद्य रखें | घी का दीपक जला संतोषी माँ की जयकार करते हुए नारियल फोड़े | इस दिन आठ (८) लड़कों को भोजन कराएँ | देवर, जेठ, घर के ही लडकें हो तो दूसरों को बुलाना नहीं | अगर कुटुंब में न मिले तो ब्राह्मिनो के, रिश्तेदारों के या पडोसी के लड़के बुलाएँ | उन्हें खटाई की कोई वास्तु न दे तथा भोजन करा यथाशक्ति दक्षिणा दें |

व्रत कथा :


एक समय की बात है कि एक नगर में ब्राह्मिण, कायस्थ और वैश्य जाति के तीन लड़कों में परस्पर मित्रता थी | उन तीनो का विवाह हो गया था | ब्राह्मिण और कायस्थ के लड़कों का गौना भी हो गया था , परन्तु वैश्य के लड़के का गौना नहीं हुआ था | एक दिन कायस्थ के लड़के ने कहा- "हे मित्र ! तुम मुकलावा करके अपनी स्त्री को घर क्यों नहीं लाते ? स्त्री के बिना घर कैसा बुरा लगता है |"

यह बात वैश्य के लड़के को जँच गयी | वह कहने लगा मै अभी जाकर मुकलावा लेकर आता हूँ | ब्राह्मिण के लड़के ने कहा अभी मत जाओ क्योकि शुक्र अस्त हो रहा है , जब उदय हो तब लेकर आ जाना | परन्तु वैश्य के लड़के को ऐसी जिद हो गयी कि किसी प्रकार से नहीं माना | जब उसके घरवालों ने सुना तो उन्होंने बहुत समझाया परन्तु वह किसी भी प्रकार से नहीं माना और अपने ससुराल चला गया | उसे आया देखकर ससुराल वाले भी चकराए | जमाता का स्वागत-सत्कार करने के बाद उन्होंने पूछा आपका आना कैसे हुआ ? वैश्य के पुत्र ने कहा कि मै अपनी पत्नी को विदा कराने आया हूँ | ससुराल वालों ने भी उसे बहुत समझाया कि इन दिनों शुक्र अस्त है, उदय होने पर ले जाना | परन्तु उसने एक न सुनी और अपनी पत्नी को ले जाने का आग्रह करता रहा | जब वह किसी प्रकार न माना तो उन्होंने अपनी पुत्री को विदा कर दिया |

वैश्य पुत्र अपनी पत्नी को एक रथ में बैठा कर अपने घर की ओर चल पड़ा | थोड़ी दूर जाने के बाद मार्ग में उसके रथ का पहिया टूटकर गिर गया और बैल का पैर टूट गया | उसकी पत्नी भी गिर पड़ी और घायल हो गयी | जब आगे चले तो रस्ते में डाकू मिले | उसके पास जो धन, वस्त्र और आभूषण थे, सब उन्होंने छीन लिए |

इसप्रकार अनेक कष्टों का सामना कर जब पति-पत्नी अपने घर पहुंचे तो आते ही वैश्य के लड़के को सर्प ने काट लिया और वह मूर्छित होकर गिर पड़ा |
तब उसकी स्त्री अत्यंत विलाप कर रोने लगी | वैश्य ने अपने पुत्र को वैद्य को दिखलाया तो वैद्य कहने लगे - यह तीन दिन में मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा | जब उसके ब्राह्मिण पुत्र को पता लगा तो उसने कहा-" सनातन धर्म की यह प्रथा है कि जिस समय शुक्र का अस्त हो तो कोई अपनी पत्नी को नहीं लाता | परन्तु यह उसी समय अपनी स्त्री को विदा कराके ले आया है, इस कारण सरे विघ्न उपस्थित हुए है | यदि यह दोनों वापस ससुराल चले जाएँ तथा शुक्र के उदय के समय वापस आये तो यह विघ्न टल सकता है |
सेठ ने अपने पुत्र और उसकी स्त्री को शीघ्र ही ससुराल वापस भेज दिया | वहां पहुँचते ही उसकी मूर्छा दूर हो गयी और साधारण उपचार से ही वह सर्प विष से मुक्त हो गया | उसके ससुराल वालों ने अपने दामाद को स्वास्थ्य लाभ करा शुक्र उदय होते ही अपनी पुत्री के साथ विदा किया | इसके पश्चात पति-पत्नी दोनों घर आकर आनंद से रहने लगे | इसप्रकार इस व्रत के करने से अनेक विघ्न दूर होते है |

|| कथा समाप्त ||